क्या आप जानते हैं शंकर के अलंकार और उसका सही अर्थ


के सी शर्मा*


*शंकर के अलंकारों का अर्थ है:–*

शंकर के बारे में बाबा ने हम बच्चों को बताया है कि... शंकर हम आत्माओं का तपस्वी रूप है। यह शिव बाबा की रचना है। शिव बाबा ने सर्व प्रथम तीन सूक्ष्म आकारी देवताओं की रचना की है। ये सूक्षम आकारी देवता सिम्बोलिक हैं। अर्थात प्रतीक मात्र हैं। ये अलग अलग तीन पुरियों में निवास करते हैं।
ब्रह्मा...
शिवबाबा का रथ।
 विष्णु...
लक्ष्मी नारायण का कम्बाइन्ड स्वरूप।

शंकर...
हम आत्माओं का तपस्वी स्वरूप।

*शंकर के अलंकार*

मृगछाला...
अर्थात सर्व सुखों को त्याग कर केवल तपस्वीमूर्त अवस्था का परिचायक है। दुनिया के वैभवों में आसक्ति का न होना।
डमरू...
आत्मा के, परमात्मा के व इस सृस्टि के बेहद ड्रामा के राज को जानना व सत्य ज्ञान का जय घोष कर के सारी दुनिया की आत्माओं को इस ज्ञान से परिचित करवाना। अर्थात परमपिता के सन्देश को जन जन तक पहुँचाना है।
त्रिशूल...
हर व्यक्ति को दैहिक दैविक भौतिक तापों के द्वारा अपने पाप कर्मों की सजाओं को भोगना पढता है। इनको त्रिताप या त्रिशूल अर्थात त्रि+शूल = तीन प्रकार के शूल... मीन्स काँटे... जैसे बबूल के काँटे...
जो शूल की भाँति चुभते हैं। इनको त्रिताप कहते हैं।
सर्पों की माला...
अर्थात विकारों रुपी साँपों को भी अपने आधीन करके अपने गले में धारण करना। विजय प्राप्ति का चिन्ह है।
चन्द्रमा...
 घटती बढ़ती कलाओं का प्रतीक अर्थात कैसी भी अवस्था हो... उसमें सदा दाता की स्मृति रहे। स्वयं को संसार की सेवा में लगा देना... और अपनी चाँदनी को, अपने उज्जवल प्रकाश को वा अपनी शीतलता को सेवार्थ लोक कल्याण के कार्य में लगाना है।
नीलकण्ठ...
प्रत्येक प्राणी को बाहरी सांसारिक बुराइयों को अपने भीतर अन्तर्मन में नहीं ले जानी हैं। संसार के कल्याणार्थ बाहरी बुराइयों को कण्ठ से नीचे नहीं उतारना हैं। उनको अपने कण्ठ में ही धारण करना है अर्थात समां लेना है। ये कार्य हमारा तपस्वी स्वरूप ही कर सकता है।
जटाओं से गंगा...
 शिवपिता से प्राप्त सत्य ज्ञान के प्रचण्ड वेग को अपनी बुद्धि रुपी पात्र में समा लेना तथा अपने तपस्वी स्वरूप द्वारा लोक कल्याण हेतु सत्य ज्ञान को इस संसार में प्रत्यक्ष करना।
ताण्डव नृत्य...
 मन की आंतरिक आसुरी वृतियों का संहार कर देना है। जो हर मनुष्य आत्मा के लिए आसान नहीं है।
भस्म...
 देहभान से न्यारा। संसार में रहते भी संसार से, संसार के पदार्थों से विरक्त हो जाना। न्यारा और प्यारा। अर्थात अपने इस शरीर के अन्त को सदा याद रखना है।
 वस्त्रों से रहित... अशरीरी अवस्था में स्थित रहना। अपने को आत्मा समझ कर चलना। जब देह रुपी वस्त्रों का त्याग करेंगे अर्थात आत्माअभिमानी स्थिति में स्थित होंगे तो ही परमात्मा की समीपता को प्राप्त कर सकेंगे।