7 जनवरी हमारे रियल हीरो निर्बल की पीड़ा के फिल्मकार विमल दा की पुण्यतिथि पर विशेष



 विशेष-के सी शर्मा*

अपनी कला के माध्यम से कलाकार किसी व्यक्ति या समाज को बदलने की क्षमता रखता है। यह उस कलाकार पर निर्भर है कि वह अपनी कला का उपयोग समाज को सही दिशा देने में करे या नीचे गिराने में।

सिनेमा इस दृष्टि से एक सशक्त माध्यम है। दुर्भाग्यवश आज सिनेमा का मुख्य उद्देश्य आधुनिकता के नाम पर केवल नंगेपन और अनुशासनहीनता का ही प्रचार-प्रसार हो गया है; पर भारत की माटी में ऐसे अनेक फिल्मकार जन्मे हैं, जिन्होंने निर्धन और निर्बल जनों की पीड़ा को उजागर किया। ऐसे ही एक अनुपम फिल्मकार थे विमल दा।

विमल दा का जन्म 12 जुलाई, 1909 को वर्त्तमान बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुआ था। बचपन से ही उनके मन में कला के बीज अंकुरित होने लगे थे। बड़े होने पर उनके ध्यान में आया कि यदि कला को ही अपने जीवन का आधार बनाना है, तो इसके लिए मुम्बई सर्वश्रेष्ठ स्थान है। अतः वे ढाका से अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर मुम्बई आ गये।

पर मुम्बई में जीवनयापन के लिए व्यक्ति को संघर्ष की कठिन प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है। विमल दा के मन में एक निर्देशक छिपा था; पर पैर जमाने के लिए उन्होंने कैमरामैन के नाते काम शुरू किया। 1935 में प्रदर्शित पी.सी. बरुआ की फिल्म ‘देवदास’ और 1937 में प्रदर्शित ‘मुक्ति’ के लिए उन्होंने फोटोग्राफी की। इनमें उनके काम की सराहना हुई।

उन दिनों धार्मिक फिल्में अच्छी सफलता प्राप्त करती थीं। रोमाण्टिक फिल्मों का दौर अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था। ऐसे में विमल दा ने एक नये क्षेत्र में हाथ डाला। वह था सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाना। यह बहुत कठिन काम था। क्योंकि ऐसी फिल्मों में धन लगाने वाले भी आसानी से नहीं मिलते थे; पर विमल दा ने ग्रामीण क्षेत्र में जमींदारी प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं की समस्या, जातिभेद आदि पर आधारित सामाजिक कहानियों एवं उपन्यासों से विषयों का चयन कर उन पर फिल्में बनायीं।

1944 में उन्होंने ‘उदयेर पौथे’ नामक बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया। इसका हिन्दी रूपान्तर ‘हमराही’ नाम से हुआ और उसने अच्छी सफलता पायी। इससे विमल दा का साहस बढ़ा और उन्हें प्रसिद्धि भी मिली। 1952 में बाम्बे टाकीज के फिल्म ‘माँ’ का निर्देशन किया; पर अभी उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम बाकी था। फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से उन्हें वास्तविक सफलता मिली।

यह एक ऐसे किसान की कहानी है, जो गाँव में जमींदार के पास बन्धक रखी अपनी दो बीघा जमीन को छुड़ाने के लिए शहर में रिक्शा खींचता है। इस फिल्म ने विमल दा को अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलायी। उन्हें कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोहों में सम्मानित किया गया। शरदचन्द्र के उपन्यास पर उन्होंने ‘बिराज बहू’ और ‘देवदास’ फिल्में बनायीं। 1958 में पुनर्जन्म पर आधारित ‘मधुमती’ और ‘यहूदी’ फिल्मों का निर्देशन किया।

विमल दा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘बन्दिनी’ थी। इसमें हत्या के आरोप में जेल में बन्द एक महिला के अन्तर्मन की दशा का सजीव चित्रण है। फिर उन्होंने छुआछूत पर आधारित ‘सुजाता’ फिल्म बनाई। इससे सामाजिक समस्याओं को फिल्मों में केन्द्रीय स्थान मिलने लगा। विमल दा को सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। 7 जनवरी, 1966 को लम्बी बीमारी के बाद भारतीय सिनेमा का यह रत्न सदा के लिए शान्त हो गया।