जानिए कैसे है अग्नि और ब्राह्मण सहोदर-के सी शर्मा




अग्नि और ब्राह्मण की सहोदरता का प्रमाण हैं कि ब्राह्मण तथा अग्नि विराट् पुरुष के मुख से उत्पत्ति कही गयी हैं। ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्।।
यजुः वा०शा ३१/११।।
मुखाद् अग्निरजायत।।३१/१२।।

इसलिये..
शास्त्रों में ब्राह्मणों को आग्नेय या अग्नि कहा गया हैं।

तभी मीमांसा दर्शन १/४/२४सूत्र के शाबरभाष्य में आग्नेयो वै ब्राह्मणः।।
पर
प्रकाश डालने के लिये इस प्रकार प्रश्नोत्तरी हुई हैं--

अथाग्नेयेषु (ब्राह्मणेषु) आग्नेयादि शब्दाः केन प्रकारेण ?

उ - गुणवादेन

को गुणवादः ?
उ - अग्निसम्बन्धः।

कथम् ?
उ-एकजातीयकत्वात् (अग्निब्राह्मणयोः)

किमेकजातीयकत्वम् ?
उ - प्रजापतिरकामयत प्रजाः सृजेयमिति।
समुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत।
तमग्निर्देवता अन्वसृज्यत"" ब्राह्मणो मनुष्याणाम्।। तस्मात् ते मुख्याः। मुखतोऽन्वसृज्यन्त।।

यहाँ पर अग्नि और ब्राह्मण की एकजातीयता स्पष्ट जानी जाती हैं।

अग्न्याऽभावे तु विप्रस्य पाणावेवोपपादयेत्।।
 मनुः ३/२१२।।
यदि साग्निक न होतों विप्र के हाथ में अग्नौकरण आहुतिद्वय दे

इसमें हेतु यह दिया हैं --
यो ह्यग्निः स द्विजो विप्रैर्मन्त्रदर्शिभिरुच्यते ।।मनुः तत्रैव।।

गोपथ ब्रा०में कहा हैं --
ब्राह्मणो ह वा इममग्निं वैश्वानरं बभार।।
१/२/२०।।
कठोंपनिषद् से ब्राह्मण का अग्नित्व इस प्रकार कहा हैं -
वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्बाह्मणो गृहान्।।
१/१/७।।
भविष्य पुराण -
ब्राह्मणा ह्यग्निदेवास्तु।।
ब्राह्म पर्व लगभग १३ अ०।।

महाभारत में निषाद के आचारवाले भी ब्राह्मण को निगलने के समय गरुड़ के कण्ठ में अग्निदाह जैसा प्रतित होने लगा था।
-आदिपर्व २९।।

सास्य देवता ।।पार ०गृ सूत्र ४/२/२४।।
सूत्र के व्याख्यान में सिद्धान्तकौमुदी में कहा हैं..
आग्नेयो वै ब्राह्मणो देवतया -
इसपर बालमनोरमा -
अग्निर्नाम यो देवताजातिविशेषो लोकवेद प्रसिद्धः, तदभिमानिको ब्राह्मणः।।

उपर महाभारत का भी दृष्टांत दिया हैं इससे ब्राह्मण यह न समजें कि स्वकर्मपथभ्रष्ट ब्राह्मण भी इस कलियुग में श्रेष्ठ हैं,

जो ब्राह्मण नित्यकर्म से रहित -

आयाज्यों के याजन , अभक्ष्यादि दोषों से द्विजत्वभ्रष्टरूपी हलाहलविष लेकर स्वयं घूमते फिर रहे हैं वे इस प्रत्वयाय के कारण उनके संसर्गी व स्वकुल के  भी नाशक होतें ही हैं।।

हलाहल की दाहक असर धारक के पर भी निश्चितता से होती ही हैं।।

मार्गपर आ जायें।  इसलिये तो कहा हैं कि कलियुग में पापकर्ता यदि अपनी उचित प्रायश्चित्तविधा मार्गसे शुद्धि न करें तो त्यागने योग्य हैं -->

कर्तारं_तु_कलौयुगे।।पाराशर।। कलौ_पतति_कर्मणा।। तत्रैव।।