जानिए, क्या है नो स्कूल नो फीस नारे का सच-के सी शर्मा

हकीकत का आईंना

प्राईवेट स्कूलों को अभिभावकों के द्वारा फीस न देने के चलाये गए ट्रेंड नारे के लिए मंथन जरूर करें?
जो सक्षम है वो दे?
जो गरीब है? उन पर स्कूल रहम करे?               
अभिभावकों ने एक नारा दिया है- नो स्कूल नो फीस?:-

  आपने ख्याल किया होगा, जब भैंस दूध नहीं दे रही होती,  मालिक तब भी चारा डालता है ताकि भैंस जिंदा रहे व आने वाले समय म़े हरी होगी ओर दूध भी देगी। 
अब सबके सामने जिंदा रहने का सवाल है।
स्कूल प्रबंधन का अर्थ सिर्फ स्कूल मालिक नहीं है।
 हर स्कूल में टीचर, ड्राइवर, चपरासी, अकाउंटेंट, कम्प्यूटर ऑपरेटर मिलाकर 20 से 100 का स्टाफ हो जाता है!
राज्य में कई हजार निजी स्कूल हैं, जिनमें करीब 400000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है। उनमे से कई परिवारों को 2 माह से वेतन नहीं मिला।
 हर स्कूल औसतन 2 से 10 लाख रुपये वेतन पर खर्च करता है। ज्यादातर स्कूलों में बसें लोन पर हैं। लेकिन किश्तों में कोई माफी नहीं है। बिजली बिल माफ नहीं हैं। और कई टैक्स, जो पूरे साल के हिसाब से लगते हैं। ऐसे में उनकी परेशानी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

 दूसरी बात, लॉक डाउन में ऐसा कोई वर्ग नहीं है, जो मुफ्त सेवा दे रहा हो। क्या डॉक्टर मुफ्त दवाई दे रहे हैं? 
क्या मिस्त्री मुफ्त में काम कर रहे हैं?क्या सरकारी कर्मचारी तनख्वाह नहीं ले रहे? क्या बैंकों ने ब्याज या लोन माफ किया? क्या जमींदारों ने अपनी फसल गरीबों को बांट दी?
 कोई दुकानदार 51 रुपये का रिचार्ज 50 में भी करने को तैयार नहीं है। मेडिकल, मोबाइल, करियाना, फर्नीचर, दर्जी, गारमेंट कहीं कुछ मुफ्त नहीं है। कुछ भी सस्ता नहीं है। सरकार ने मास्क तक मुफ्त नहीं दिए। फिर, हम स्कूलों की फीस क्यों नहीं देना चाहते।
 निजी स्कूलों में बड़े जमींदार, जज, डॉक्टर,  वकील, सरकारी कर्मचारी, आढ़ती, बिजनेसमैन, बैंक मैनेजर भी तो अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं। 
वो लॉक डाउन का हवाला क्यों दे रहे हैं। सरकार ने एक अच्छी बात कही है कि हर महीने अभिभावकों को फीस अवश्य देनी होगी।
 जो लोग फीस देने में समर्थ हैं, उन्हें देनी भी चाहिए। अगर पूरी न दे सकें तो कुछ तो दें। लेकिन हम डबल सोचते हैं। बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजा तो इज्जत घट जाएगी।
 पढ़ाना प्राइवेट में है, लेकिन कोई फीस ना मांगें। यह विवाद सिर्फ स्कूलों के साथ नहीं है। बल्कि मुफ्तखोरी राष्ट्रीय समस्या है। हम ट्रेनों और बसों में टिकट नहीं लेना चाहते। कहीं सर्कस लग जाये तो दोस्त ढूंढते हैं, जो पास दिलवा दे। लाखों अमीरों ने फर्जी राशन कार्ड बना रखे हैं। जियो की मुफ्त सिम के लिए लोग हफ्ताभर लाइन में लगे रहे। 4G सिम चलाने के लिए 3G हैंडसेट कबाड़ में बेचने को राजी हो गए। मोबाइल डाटा बेशक रोज महंगा हो जाए, लेकिन टिक टॉक चलेगा। लेकिन हम एजुकेशन को फालतू का खर्चा मानते हैं।  इसलिए देश शिक्षा में आगे नहीं बढ़ पाया। मेरी अंतरात्मा कहती है कि टीचर हमारे बच्चों के लिए सालों से मेहनत करते आए हैं। उनका मेहनताना जरूर देना चाहिये। चाहे थोड़ा थोड़ा करके दें। जरूरत मन्दों को स्कूल जरूर बड़े स्तर पर राहत दे।