जानिएअन्य देवताओं की तरह ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं की जाती है -के सी शर्मा




ब्रह्मा  सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं।  व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके चार मुख हैं, जो चार दिशाओं में देखते हैं। ब्रह्मा को स्वयंभू (स्वयं जन्म लेने वाला) और चार वेदों का निर्माता भी कहा जाता है। हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था।

भगवान ब्रह्मा त्रिदेवों में सबसे पहले आते हैं । ये लोकपितामह होने के कारण सभी के कल्याण की कामनाकरते हैं क्योंकि सभी इनकी प्रजा हैं । देवी सावित्री और सरस्वतीजी के अधिष्ठाता होने के कारण ज्ञान, विद्या व समस्त मंगलमयी वस्तुओं की प्राप्ति के लिए इनकी आराधना बहुत फलदायी है । वे ही ‘विधाता’ कहलाते हैं ।

भगवान ब्रह्मा की पूजा-आराधना का एक विशिष्ट सम्प्रदाय है जो ‘वैखानस आगम’ के नाम से प्रसिद्ध है । ब्रह्माजी के नाम से श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, स्मार्तसूत्र तथा स्मृतियां प्राप्त होती हैं ।

ब्रह्माजी की सब जगह अमूर्त उपासना होती है । सभी प्रकार के सर्वतोभद्र, लिंगतोभद्र तथा वास्तु आदि चक्रों में उनकी पूजा मुख्य स्थान में होती है किन्तु मन्दिरों के रूप में उनकी पूजा मुख्यत: पुष्कर तथा ब्रह्मावर्त क्षेत्र (बिठूर) में होती है ।

मध्व-सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक-आचार्य ब्रह्माजी ही माने गये हैं इसलिए उडूपी आदि मुख्य पीठों में इनकी बड़े आदर से पूजा-आराधना की जाती है ।

अन्य देवताओं की तरह ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं की जाती है ?

भगवान विष्णु, शिवजी, श्रीकृष्ण, श्रीराम, देवी दुर्गा और हनुमानजी की प्रतिमा की तरह ब्रह्माजी की प्रतिमा की पूजा न होने का कारण पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में दिया गया है—

पुष्कर के महायज्ञ में सभी देवता और देवपत्नियां उपस्थित हो गये और सभी की पूजा आदि के पश्चात् हवन की तैयारी होने लगी, किन्तु ब्रह्माजी की पत्नी सरस्वतीजी देवपत्नियों के बुलाये जाने पर भी विलम्ब करती गईं । बिना पत्नी के यज्ञ का विधान नहीं है और यज्ञ आरम्भ करने में बहुत बिलम्ब देखकर इन्द्र आदि देवताओं ने कुछ समय के लिए सावित्री नाम की कन्या को ब्रह्माजी के वामभाग में बैठा दिया ।

कुछ देर बाद जब सरस्वतीजी वहां पहुंचीं तो वे यह सब देखकर क्रुद्ध हो गयीं और उन्होंने देवताओं को बिना विचार किये काम करने के कारण संतानरहित होने का शाप दे दिया और ब्रह्माजी को पुष्कर आदि कुछ स्थानों को छोड़कर अन्य जगह मन्दिर में प्रतिमा रूप में पूजित न होने का शाप दे दिया ।  यही कारण है कि ब्रह्माजी की मूर्ति रूप में पूजा-आराधना अन्य जगह नहीं होती है । 

किन्तु इससे ब्रह्माजी का महत्व कम नहीं होता क्योंकि—

 बारह भागवताचार्यों (भगवान ब्रह्मा, भगवान शंकर, देवर्षि नारद, सनकादि कुमार, महर्षि कपिल, महाराज,मनु, भक्त प्रह्लाद, महाराज जनक, भीष्मपितामह, दैत्यराज बलि, महामुनि शुकदेवजी और यमराजजी) में ब्रह्माजी का प्रथम स्थान है । सृष्टि के आदि में भगवान शेषशायी विष्णु की नाभि से एक ज्योतिर्मय कमल प्रलयसिन्धु में प्रकट हुआ और उसी कमल की कर्णिका पर ब्रह्माजी प्रकट हुए । ब्रह्माजी ने यह देखने के लिए कि यह कमल कहां से निकला है, उसके नाल-छिद्र में प्रवेश किया और सहस्त्रों वर्षों तक उस नाल का पता लगाते रहे । पर जब कोई पता न लगा तो उसी समय अव्यक्त वाणी में उन्हें ‘तप’ शब्द सुनाई दिया और वे दीर्घकाल तक तप करते रहे । उन्हें अंत:करण में भगवान के दर्शन हुए और भगवान ने चार श्लोकों में ‘चतु:श्लोकी भागवत’ का उपदेश किया । ब्रह्माजी ने यह उपदेश देवर्षि नारद को और नारदजी ने भगवान व्यासजी को यह उपदेश किया । व्यासजी ने ‘श्रीमद्भागवत’ के रूप में इसे शुकदेवजी को पढ़ाया । इस प्रकार संसार में श्रीमद्भागवत के ज्ञान का प्रकाश फैला ।

 जब कभी पृथ्वी पर अधर्म और अनीति बढ़ जाती है तो पृथ्वी माता दुराचारियों के भार से पीड़ित होकर गौ का रूप धारण कर ब्रह्माजी के पास ही जाती हैं । इसी तरह जब देवता भी दैत्यों से पराजित होकर अपना राज्य खो बैठते हैं तो वे भी प्राय: ब्रह्माजी के पास ही जाते हैं । भगवान ब्रह्मा देवताओं के साथ भगवान विष्णु की स्तुति करते हैं और तब जैसा भी भगवान का आदेश होता है, वैसा कार्य करने का आदेश वे देवताओं को देते हैं । इस प्रकार भगवान के अधिकांश अवतार ब्रह्माजी की प्रार्थना से ही होते हैं । अत: भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में प्राय: ब्रह्माजी ही निमित्त बने हैं।

 जब भी विश्वामित्र या पृथु जैसे समर्थशाली सृष्टि में व्यतिक्रम करने लगते हैं तो सृष्टि में सामंजस्य बनाये रखने के लिए उन्हें समझाने के लिए ब्रह्माजी को ही आना पड़ता है ।

 ब्रह्माजी के चार मुखों से चार वेद—पूर्व मुख से ऋग्वेद, दक्षिण मुख से यजुर्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद तथा उत्तर मुख से अथर्ववेद का आविर्भाव हुआ । इनके अतिरिक्त उपवेदों के साथ इतिहास-पुराण के रूप में ‘पंचम वेद’ का भी ब्रह्माजी के मुख से आविर्भाव हुआ । अथर्ववेद तो ब्रह्माजी के नाम पर है इसलिए ‘ब्रह्मवेद’ भी कहलाता है ।

 इनके अतिरिक्त यज्ञ के होता, उद्गाता, अर्ध्वयु और ब्रह्मा आदि ऋत्विज् भी ब्रह्माजी से ही प्रकट हुए हैं । यज्ञ के मुख्य निरीक्षक ऋत्विज् को ‘ब्रह्मा’ नाम से जाना जाता है जो प्राय: यज्ञकुण्ड के दक्षिण दिशा में स्थित होकर यज्ञ-रक्षा और निरीक्षण का कार्य करता है । 

 ब्रह्माजी का यज्ञादि में सादर आवाहन-पूजन करके आहुतियां प्रदान की जाती हैं ।

▪️ यज्ञ-कार्य में सबसे अधिक प्रयोग होने वाली पवित्र समिधा पलाश-वृक्ष की मानी जाती है जो ब्रह्माजी का ही स्वरूप माना जाता है ।

 देवता और असुरों की तपस्या में सबसे अधिक आराधना ब्रह्माजी की ही होती है । सृष्टिकर्म में लगे रहने से वे बहुत कठोर तप करने पर ही तुष्ट होते हैं । विप्रचित्ति, तारक, हिरण्यकशिपु, रावण, गजासुर तथा त्रिपुर आदि असुरों को इन्होंने ही अवध्य होने का वरदान दिया था । देवता, ऋषि, मुनि, गंधर्व, किन्नर और विद्याधर आदि इन्हीं की आराधना करते हैं ।

 ब्रह्माजी ने पुष्कर, प्रयाग और ब्रह्मावर्त क्षेत्र में विशाल यज्ञों का आयोजन किया था, इसलिए ब्रह्माजी के कमल के नाम पर पुष्कर और यज्ञ के नाम पर प्रयाग तीर्थ स्थापित हुए जिसे सभी तीर्थों के राजा, पुरोहित व गुरु माना गया है । काशी के मध्यभाग में ब्रह्माजी ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे जिस कारण इस स्थान को दशाश्वमेध-क्षेत्र कहते हैं।

इसी कारण भगवान ब्रह्मा त्रिदेवों में सबसे पहले आते हैं । ये लोकपितामह होने के कारण सभी के कल्याण की कामना करते हैं क्योंकि सभी इनकी प्रजा हैं । देवी सावित्री और सरस्वतीजी के अधिष्ठाता होने के कारण ज्ञान, विद्या व समस्त मंगलमयी वस्तुओं की प्राप्ति के लिए इनकी आराधना बहुत फलदायी है । वे ही ‘विधाता’ कहलाते हैं।