एशिया के सबसे बड़े स्लम से ग्राउंड रिपोर्ट:tap news India deepak tiwari

मुंबई.धारावी यह नाम सुनते ही दिमाग में झुग्गी-झोपड़ियों की तस्वीर बनने लगती है। महज 2.5 स्क्वेयर किलोमीटर में फैले एशिया के इस सबसे बड़े इस स्लम में 10 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। अप्रैल में यहां कोरोना का ब्लास्ट हुआ था। लेकिन जून तक वायरस पर पूरी तरह से काबू पा लिया गया था। इसलिए 'धारावी मॉडल' की बहुत चर्चा हुई थी। अब एक बार फिर यहां कोरोना की दूसरी लहर आती दिख रही है। धारावी में कोरोना के मामले 3 हजार को क्रॉस कर चुके हैं। पिछले दस दिनों से तो हर दिन दो अंकों में मामले बढ़ रहे हैं। अभी 180 से ज्यादा एक्टिव केस हैं। ऐसे में हम धारावी पहुंचे और जाना कि कोरोना को रोकने वाला 'धारावी मॉडल' क्या था, अब क्या हालात हैं और लोग कैसे अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।
धारावी में पक्की झोपड़ियां हैं, जो ऊंचाई से ऐसी नजर आती हैं।
धारावी में पक्की झोपड़ियां हैं, जो ऊंचाई से ऐसी नजर आती हैं।
संकरी गलियां, छोटे-छोटे कमरे। कमरे में ही किचन और वहीं बर्तन साफ करने की एक जगह भी। एक घर में रहने वाले औसत पांच से सात लोग। कुछ-कुछ में बारह से पंद्रह। यहां सोशल डिस्टेंसिंग की बात करना बेमानी है, क्योंकि जगह इतनी कम है कि एक-दूसरे से दूरी बनाना मुमकिन ही नहीं। अधिकतर घरों में एक-एक कमरे ही हैं। साइज दस बाय दस फीट होगा। हालांकि, यहां की झुग्गियां कच्ची नहीं, पक्की हैं। गुरुवार सुबह 10 बजे जब हम यहां पहुंचे तो धारावी पहले की तरह नजर आई। बाजार खुले थे। लोग काम धंधे पर निकल रहे थे। मास्क गिने चुने चेहरों पर ही दिख रहा था। हैंड सैनिटाइजर जैसी चीज यहां शायद ही कोई इस्तेमाल करता हो। हां, लेकिन धारावी की गलियां साफ-सुथरी नजर आईं। यहां के लोगों में अब कोरोना का बिल्कुल डर नहीं है, क्योंकि बात पेट पर आ गई है। वे कहते हैं, कोरोना से नहीं मरेंगे तो भूख से मर जाएंगे इसलिए काम पर तो निकलना पड़ेगा। पिछले करीब एक हफ्ते से यहां हर रोज कोरोना पॉजिटिव मरीज पाए जा रहे हैं।
कोई भाड़ा नहीं भर पा रहा तो किसी पर हजारों का कर्जा हो गया
खैर, धारावी की जमीनी हकीकत जानने के लिए हम अंदर गलियों में घुसे। पहली गली में घुसते ही सारोदेवी नजर आईं। एक छोटे से कमरे में वो भजिया तल रहीं थीं। इतने सारे समोसे, वड़ा, भजिया किसके लिए बना रही हैं? पूछने पर बोलीं, मेरा बेटा सायन हॉस्पिटल के बाहर बेचता है। पांच माह से काम बंद था। पंद्रह दिन पहले ही शुरू हुआ है। लॉकडाउन में गुजर बसर कैसे किया? इस पर बोलीं, फ्री वाला राशन बंटता था, वो ले लेते थे। कुछ राशन सरकार से भी मिला। कुछ सामान हमारे पास था। यह सब मिलाकर जैसे-तैसे दिन काटे हैं। धंधा बंद था इसलिए न भाड़ा दे पाए और न ही बिजली का किराया भरा। 25 हजार रुपए का कर्जा भी हो गया। अब काम शुरू हुआ है तो थोड़ा-थोड़ा करके चुकाएंगे। सारोदेवी के घर की अगली गली में अनीता मिलीं। उनका एक पैर काम नहीं करता। पति भी दिव्यांग हैं। दो बच्चे हैं, जिसमें से एक को मां-बाप वाली कमी आ गई। दूसरा बेटा ठीक है। दस बाय दस के कमरे में अनीता का पूरा परिवार रहता है। पति मिट्टी के बर्तन बनाने जाते हैं। उनका बेटा चिराग कहता है, पापा का माल बिकता है, तब ही घर में पैसा आता है। कमरे का भाड़ा तीन हजार रुपए महीना है, लेकिन चार-पांच महीने से भरा नहीं। मकान मालिक ने बोला है कि, जल्दी भाड़ा भरो नहीं तो कमरा खाली करना पड़ेगा।
ये सारो देवी हैं। कहती हैं-- लॉकडाउन में खाने-पीने के लाले पड़े गए थे। समोसा, भजिया, वड़ा बेचकर परिवार को पाल रही हैं।
धारावी के अधिकतर घरों में महिलाएं खाने पीने की चीजें तैयार करती हैं और उनके बेटे या पति ये सामान बाहर बेचते हैं। कीमत काफी कम होती है, इसलिए माल बिक जाता है। 10 रुपए में पांच इडली बेचने वाली मारिया सिर पर बड़ी तपेली रखती जाती दिखीं। हाथ में एक थैला था, जिसमें तीन डिब्बे रखे थे। वो इडली और वड़ा सांभर बेचने के लिए निकली थीं। हमने रोका तो मुस्कुराते हुए कहने लगीं कि मैंने लॉकडाउन में भी चोरी-छुपे इडली-वडा बेचे क्योंकि घर में कुछ खाने को था ही नहीं। पैसों की बहुत जरूरत थी इसलिए प्लास्टिक की थैलियों में इडली-वड़ा भरकर ले जाती थी और धारावी की गलियों में ही बेच आती थी।
मारिया महीने का 25 से 30 हजार रुपए कमा लेती हैं। इस पैसे से उन्हें सिर्फ घर ही नहीं चलाना होता बल्कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी करवानी होती है। धारावी में बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय भी रहते हैं जो इडली-सांभर और वड़ा-सांभर घर में तैयार कर बाहर बेचते हैं। इन्हीं संकरी गलियों में ढेरों स्मॉल स्केल बिजनेस भी चलते हैं। जैसे कोई परिवार मिट्टी के बर्तन बनाता है. तो कोई जूते, बैग सिलता है। कपड़ों की छोटी-छोटी फैक्ट्रियां भी यहां हैं। वे पूरी तरह से मार्केट के खुलने पर ही डिपेंड हैं। वर्क फ्रॉम होम का इन लोगों के पास कोई आप्शन नहीं। जिंदगी का गुजर-बसर करने के लिए जरूरी है कि या तो इन लोगों के पास ग्राहक आएं या फिर ये लोग ग्राहकों तक जाएं। पिछले पंद्रह-बीस दिनों में सभी ने अपने धंधे शुरू कर दिए लेकिन पहले की तरह ग्राहक नहीं आ रहे।