अयोध्या पर बेताबी और मजीठिया पर बने मोनी बाबा-के सी शर्मा



के सी शर्मा की रिपोर्ट

अयोध्या पर बेताबी और मजीठिया पर बने मौनी बाबा


अयोध्या के बहुप्रतीक्षित राम मंदिर मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आनेवाला है। सुनवाई मुख्य न्यायाधीश माननीय रंजन गोगोई की पीठ कर रही है और फैसला भी यही पीठ देगी। सरकार उस फैसले का सम्मान करने के लिए बेताब है। जाहिर है कि आदेश के सम्मान में पीएम से लगायत स्थानीय नेताओं के बयान भी आएंगे। इस लोकतंत्र में माननीय न्यायालय के आदेश का सम्मान हर किसी का फर्ज है। कोई भी व्यक्ति या संस्था संविधान से बड़ी नहीं हो सकती। लेकिन एक ओर सरकार माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के सम्मान की बात करती हैं और दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन के लिए दोहरा मापदंड अपना रही है। सरकारें कारपोरेट हाउसों पर इतनी मेहरबान हैं कि उनके लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी अनुपालन कराना जरूरी नहीं समझती। क्या आप जानते हैं कि अयोध्या मामले की सुनवाई कर रहे माननीय मुख्य न्यायाधीश ने चार साल पहले पत्रकारों और गैर पत्रकारों के वेतन के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में अहम फैसला दिया था। यह फैसला देश के कारपोरेट हाउसों यानि अखबार मालिकों के खिलाफ हैं। हजारों पत्रकारों, गैर पत्रकारों व उनके परिवार के हित में यह अहम फैसला हुआ है। मोदी सरकार अपना दूसरा कार्यकाल शुरू कर चुकी है लेकिन सरकार ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कितना सम्मान किया ? चार साल से अधिक समय बीत गए और आदेश का अनुपालन नहीं हो सका। हजारों पत्रकारों के वेज बोर्ड से सम्बंधित मामले विभिन्न जिलों के श्रम न्यायालयों में लटके हुए हैं। बड़ी शर्मनाक स्थिति है। जिन अखबारों को रोज सुबह आप पढ़ते हैं। उसमें ईमानदारी, नैतिकता, आदर्श और आध्यात्म की बातें छपी होती हैं। लेकिन इन अखबरों के मालिक हजारों पत्रकारों के वेतन का करोड़ों रूपया दबाकर बैठे हैं। देशभर के हजारों पत्रकार और गैर पत्रकार अपना हक मांग रहे हैं और बदले में उन्हें दबाया, डराया और नौकरी से निकाला जा रहा हैं। देश में बड़ी फैक्ट्रियां और कारोबार करनेवाले अब अपने कर्मचारियों के जरिए पत्रकारों की आवाज दबाने की कोशिशें कर रहे हैं। लोकतंत्र में इससे बड़ी शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है। ऐसे लोगों को अखबारों के जरिए लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बोलने का क्या हक हैं? क्या मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में सरकार अनजान है या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश कर रही है? सबसे अहम सवाल कि आखिर किसके दम पर कारपोरेट घराने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चार साल बाद भी लागू नहीं कर सके हैं। आज सरकार और नौकरशाही की उदासीनता पत्रकारों को उनके हक से वंचित किये हुए है। सरकार और अखबार मालिक इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते नहीं दिखाई दे रहे हैं। राम मंदिर से इस मामले को इसलिए जोड़ा जा रहा है कि वही मुख्य न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं जो मजीठिया वेज बोर्ड पर फैसला दे चुके हैं। उच्चतम न्यायालय के आदेश के सम्मान का यह कैसा मापदंड है। राजनीतिक चश्मे से यदि देखें तो राम मंदिर के साथ एक बड़ा वोट बैंक जुड़ा हैं। लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि यहां भी हजारों पत्रकारों व गैर पत्रकारों के परिवारों इस मसले से जुड़े हैं। साथ ही पत्रकारिता से जुड़े हर व्यक्ति की भावना भी इसमें जुड़ी हुई है जो संस्थानों मंे काम कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए गठित वेज बोर्डों ने जब जब संस्तुतियां की तब तब उनका हक मारा गया है। इस बार भी पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग का हक मारने की कोशिश कर रहा हैं। भ्रष्टाचार मुक्ति, ईमानदारी और सबका साथ सबका विकास का नारा देनेवाली सरकार को इस मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।