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Monday, 15 June 2020

19:13

शिव की महिमा अपरंपार के सी शर्मा



*कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥

भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥

मित्रों, आज भगवान् शिवजी का विशेष दिन है सोमवार, सोमवार को एक दिन की पूजा और आराधना का अनंत फल मिलता है, भगवान् भोलेनाथ सदैव लोक उपकारी और हितकारी हैं, त्रिदेवों में इन्हें संहार का देवता भी माना गया है, अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना की तुलना में शिवोपासना को अत्यन्त सरल माना गया है, अन्य देवताओं की भांति भगवान् शंकरजी को विशेष सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

शिवजी तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, कंटीले और न खायें जाने वाले पौधों के फल जैसे धूतरा से ही प्रसन्न हो जाते हैं, शिवजी को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है, वे तो औघड़ बाबा हैं, हमेशा जटाजूट ही रहते हैं, गले में नाग लिपटे हुयें, एवम्  रूद्राक्ष  की माला धारण करते हुये, शरीर पर बाघम्बर शोभा पाते हुयें।

चिता की भस्म को लगायें एवम् हाथ में त्रिशूल पकड़े हुयें वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं, इसीलिये उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गयीं है, उनकी वेशभूषा से जीवन और मृत्यु का बोध होता है, शीश पर गंगाजी और चन्द्रमा को जटा पर धारण करते हुयें, जो जीवन एवं कला के द्योतम हैं, शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है।

यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुयें अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है, रामचरितमानस में तुलसीदास ने जिन्हें अशिव वेषधारी और नाना वाहन नाना भेष वाले गणों का अधिपति कहा है, वे शिवजी जन-सुलभ तथा आडम्बर विहीन वेष को ही धारण करने वाले हैं, वे नीलकंठ भी कहलाते हैं, क्योंकि, समुद्र मंथन के समय जब देवगण एवं असुरगण अद्भुत और बहुमूल्य रत्नों को हस्तगत करने के लिए मरे जा रहे थे।

तब कालकूट विष के बाहर निकलने से सभी पीछे हट गयें, उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, तब शिवजी ने ही उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, तभी से शिव नीलकंठ कहलाये, क्योंकि विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया था, ऐसे परोपकारी और अपरिग्रही शिव का चरित्र वर्णित करने के लिए ही हमारे ऋषियों ने शिव महापुराण की रचना की गयीं है। 

यह पुराण पूर्णत: भक्ति ग्रन्थ है, इस पुराण में कलियुग के पापकर्म से ग्रसित व्यक्ति को मुक्ति के लिए शिवजी की भक्ति का मार्ग सुझाया गया है, मनुष्य को निष्काम भाव से अपने समस्त कर्म शिवजी को अर्पित कर देने चाहियें, वेदों और उपनिषदों में प्रणव ओऊम् के जप को मुक्ति का आधार बताया गया है, प्रणव के अतिरिक्त गायत्री मन्त्र के जप को भी शान्ति और मोक्षकारक कहा गया है।

परन्तु शिव पुराण में आठ संहिताओं का उल्लेख प्राप्त होता है, जो मोक्ष कारक हैं, ये संहितायें हैं- विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलास संहिता, वायु संहिता (पूर्व भाग) और वायु संहिता (उत्तर भाग), इस विभाजन के साथ ही सर्वप्रथम शिव पुराण का माहात्म्य प्रकट किया गया है।

इस प्रसंग में चंचुला नामक एक पतिता स्त्री की कथा है जो 'शिव पुराण सुनकर स्वयं सदगति को प्राप्त हो जाती है, यही नहीं, वह अपने कुमार्गगामी पति को भी मोक्ष दिला देती है, तदुपरान्त शिवजी के पूजा की विधि भी बताई गयीं है, शिव कथा सुनने वालों को उपवास आदि न करने के लिये कहा गया है, क्योंकि भूखे पेट कथा में मन नहीं लगता। 

साथ ही गरिष्ठ भोजन, बासी भोजन, वायु विकार उत्पन्न करने वाली दालें, बैंगन, मूली, प्याज, लहसुन, गाजर तथा मांस-मदिरा का सेवन वर्जित बताया गया है, विद्येश्वर संहिता में शिवरात्रि व्रत, पंचकृत्य, ओंकार का महत्त्व, शिवलिंग की पूजा और दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है, शिव की भस्म और रुद्राक्ष का महत्त्व भी बताया गया है।

रुद्राक्ष जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक फलदायक बताया गया है, खंडित रुद्राक्ष, कीड़ों द्वारा खाया हुआ रुद्राक्ष या गोलाई रहित रुद्राक्ष कभी धारण नहीं करने की सलाह दी गयीं है, सर्वोत्तम रुद्राक्ष तो वह है जिसमें स्वयं ही छेद होता है, सभी वर्ण के मनुष्यों को प्रात:काल की भोर वेला में उठकर सूर्य की ओर मुख करके शिवजी का ध्यान करना चाहिये।

व्यक्ति को पुरूषार्थ करते हुये अपने कमाई से अर्जित धन के तीन भाग करके एक भाग धन वृद्धि में, एक भाग उपभोग में और एक भाग धर्म के कार्यों में व्यय करना चाहिये, इसके अलावा किसी भी व्यक्ति को क्रोध कभी नहीं करना चाहिये और न ही क्रोध उत्पन्न करने वाले वचन बोलने चाहिये।

रुद्र संहिता में शिव का जीवन-चरित्र वर्णित है, इसमें नारद मोह की कथा, सती का दक्ष-यज्ञ में देह त्याग, पार्वती विवाह, मदन यानी काम का दहन, कार्तिकेयजी और गणेशजी का जन्म, पृथ्वी परिक्रमा की कथा, शंखचूड़ से भगवान् शिवजी का युद्ध और उसके संहार की कथा का विस्तार से उल्लेख है। 

शिव पूजा के प्रसंग में कहा गया है कि दूध, दही, मधु, घृत और गन्ने के रस (पंचामृत) से स्नान कराके चम्पक, पाटल, कनेर, मल्लिका तथा कमल के पुष्प चढ़ायें, फिर धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल अर्पित करें, इससे शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं, इसी संहिता में सृष्टि खण्ड के अन्तर्गत जगत् का आदि कारण शिवजी को ही माना गया हैं, शिवजी से ही आद्यशक्ति माया' का आविर्भाव होता हैं, फिर शिवजी से ही ब्रह्माजी और भगवान् विष्णुजी की उत्पत्ति बताई गयीं है।

शतरुद्र संहिता में शिवजी के अन्य चरित्रों जैसे- हनुमानजी का, श्वेत मुख और ऋषभदेवजी का वर्णन है, उन्हें शिवजी का अवतार कहा गया है, शिवजी की आठ मूर्तियां का भी उल्लेख हैं, इन आठ मूर्तियों से भूमि, जल, अग्नि, पवन, अन्तरिक्ष, क्षेत्रज, सूर्य और चन्द्र अधिष्ठित हैं, शतरूद्र संहिता में शिवजी के लोकप्रसिद्ध अर्द्धनारीश्वर रूप धारण करने की कथा बताई गयी है। 

यह स्वरूप सृष्टि के विकास में मैथुनी क्रिया के योगदान के लिये धरा गया था, शिवपुराण की शतरुद्र संहिता के द्वितीय अध्याय में भगवान शिवजी को अष्टमूर्ति कहकर उनके आठ रूपों शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव का उल्लेख है, शिवजी की इन अष्ट मूर्तियों द्वारा पांच महाभूत तत्व, ईशान (सूर्य), महादेव (चंद्र), क्षेत्रज्ञ (जीव) अधिष्ठित हैं। 

चराचर विश्व को धारण करना (भव), जगत के बाहर भीतर वर्तमान रह स्पन्दित होना (उग्र), आकाशात्मक रूप (भीम), समस्त क्षेत्रों के जीवों का पापनाशक (पशुपति), जगत का प्रकाशक सूर्य (ईशान), धुलोक में भ्रमण कर सबको आह्लाद देना (महादेव) रूप है, इसी संहिता में विष्णुजी द्वारा शिवजी के सहस्त्र नामों का वर्णन भी है, साथ ही शिवरात्रि व्रत के माहात्म्य के संदर्भ में व्याघ्र और सत्यवादी मृग परिवार की कथा भी है।

भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्रीनाथ में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है, इसी आशय की महिमा को शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है, इस संहिता में भगवान शिवजी के लिए तप, दान और ज्ञान का महत्त्व समझाया गया है, यदि निष्काम कर्म से तप किया जाये तो उसकी महिमा स्वयं ही प्रकट हो जाती है, अज्ञान के नाश से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।

दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।

शिवपुराण का अध्ययन करने से अज्ञान नष्ट हो जाता है, इस संहिता में विभिन्न प्रकार के पापों का उल्लेख करते हुए बताया गया है, कि कौन-से पाप करने से कौन-सा नरक प्राप्त होता है, पाप हो जाने पर प्रायश्चित्त के उपाय का भी इसमें विस्तार से उल्लेख किया गया हैं, उमा संहिता में देवी पार्वतीजी के अद्भुत चरित्र तथा माता पार्वतीजी संबंधित लीलाओं का उल्लेख किया गया है, चूंकि पार्वती भगवान शिवजी के आधे भाग से प्रकट हुई हैं,  और भगवान शिवजी का आंशिक स्वरूप हैं।

इसीलिए उमा संहिता में उमा महिमा का वर्णन कर अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् शिवजी के ही अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का माहात्म्य प्रस्तुत किया गया है, कैलास संहिता में ओंकार के महत्त्व का वर्णन है, इसके अलावा योग का भी विस्तार से उल्लेख है, इसमें विधिपूर्वक शिवोपासना, नन्दी श्राद्ध और ब्रह्मज्ञानी की विवेचना भी की गई है, गायत्री जप का महत्त्व तथा वेदों के बाईस महावाक्यों के अर्थ भी समझाये गये हैं।

इस संहिता के पूर्व और उत्तर भाग में पाशुपत विज्ञान, मोक्ष के लिये शिवजी के ज्ञान की प्रधानता, हवन, योग और शिवजी के ध्यान का महत्त्व समझाया गया है, शिवजी ही चराचर जगत् के एकमात्र देवता हैं, शिवजी के निर्गुण और सगुण रूप का विवेचन करते हुये कहा गया है कि शिवजी  अकेले ही हैं, जो समस्त प्राणियों पर दया करते हैं, इस कार्य के लिये ही भगवान् शिवजी सगुण रूप धारण करते हैं, जिस प्रकार अग्नि तत्त्व और जल तत्त्व को किसी रूप विशेष में रखकर लाया जाता है।

उसी प्रकार शिवजी अपना कल्याणकारी स्वरूप साकार मूर्ति के रूप में प्रकट करके पीड़ित व्यक्ति के सम्मुख आते हैं, शिवजी की महिमा का गान ही इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय है, भाई-बहनों, शिवजी की आराधना के साथ आप सभी के लिये कल्याण एवम् सौभाग्य के लिये मंगलमय् भोलेनाथ से प्रार्थना करता हूं।

जय महादेव!
ॐ नमः शिवाय

Wednesday, 15 April 2020

07:49

जानिए क्यों होता है धार्मिक कार्यों में कुश का उपयोग -के सी शर्मा



हिंदू धर्म में किए जाने वाले धार्मिक कर्म-कांडों में विशेष अवसरों पर कुश ( एक विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा कोई भी जप कुश के आसन पर बैठकर करने का ही विधान है। धार्मिक कर्म-कांड़ों में घास का उपयोग आखिर क्यों किया जाता है? इसके पीछे का कारण सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी है।

वैज्ञानिक शोधों से यह पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। जब कोई साधक कुश का आसन पर बैठकर जप करता है तो उस साधना से मिलने वाली ऊर्जा पृथ्वी में नहीं जा पाती क्योंकि कुश का आसन उसे पृथ्वी में जाने से रोक लेता है। यानि इस समय कुश अपने नैसर्गिक गुणों के कारण ऊर्जा के कुचालक की तरह व्यवहार करता है। यही सिद्धांत पूजा-पाठ व धार्मिक कर्म-कांड़ों में भी लागू होता है।
कुश के इसी गुण के कारण सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। |

पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है। इसकी पावनता के विषय में कथा पुराणों में एक कहानी है।

महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए। कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा। विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे। गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया। यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए। उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा। कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गईं और वे छटपटाने लगे। इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है, किंतु ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।

कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पैंती पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।

Thursday, 31 October 2019

07:22

सत्य के साथ खड़े रहना ही है असली स्वाभिमान


 पूनम चतुर्वेदी*

स्वाभिमान का मतलब अपनी बात पर अड़े रहना नहीं अपितु सत्य का साथ ना छोड़ना है। दूसरों को नीचा दिखाते हुए अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रयास करना यह स्वाभिमानी का लक्षण नहीं अपितु दूसरों की बात का यथायोग्य सम्मान देते हुए किसी भी दबाब में ना आकर सत्य पर अडिग रहना यह स्वाभिमान है।अभिमानी वह है जो अपने अहंकार के पोषण के लिए दूसरों को कष्ट देना पसंद करता है। स्वाभिमानी वह है जो सत्य के रक्षण के लिए स्वयं कष्टों का वरण कर ले।
        मै जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य होगा मै उसे स्वीकार कर लूँगा यह स्वाभिमानी का लक्षण है। स्वाभिमानी स्वभाव से मृदु और बेहद विनम्र होते हैं।अपने आत्मगौरव की भी प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर या रुलाकर नहीं।
पूनम चतुर्वेदी
07:17

जाने कैसे होती है शिवलिंग की पूजा





 के सी शर्मा*

कहते है की भगवान शिव की यदि लिंग स्वरुप में यानी की शिवलिंग की पूजा की जाए तो भगवान शिव बहुत जल्दी प्रसन्न होते है। हम आपको यहां पर शिवलिंग की पूजा से सम्बंधित कुछ उपाय बता रहे है जिनको करने से आप अभीष्ट फल प्राप्त कर सकते है।

1. जल चढ़ाते समय शिवलिंग को हथेलियों से रगड़ना चाहिए। इस उपाय से किसी की भी किस्मत बदल सकती है।

2. जल में केसर मिलाएं और ये जल शिवलिंग पर चढ़ाएं। इस उपाय से विवाह और वैवाहिक जीवन से जुडी समस्याएं खत्म होती है।

3. यदि आप बहुत जल्दी सफलता पाना चाहते हैं तो रोज़ पारे से बने छोटे से शिवलिंग की पूजा करें। पारद शिवलिंग बहुत चमत्कारी होता है।

4. यदि आप लंबी उम्र चाहते है तो शिवलिंग पर रोज़ दूर्वा चढ़ाएं। इससे शिवजी और गणेशजी की कृपा से घर में सुख-समृद्धि भी बढ़ती है।

5. चावल पकाएं और उन चावलों से शिवलिंग का श्रृंगार करें। इसके बाद पूजा करें। इससे मंगलदोष शांत होते हैं।

6. समय-समय पर शिवजी के निमित सवा किलो, सवा पांच किलो, ग्यारह किलो या इक्कीस किलों गेहूं या चावल का दान करें।

7. शिवलिंग पर जल चढ़ाते समय काले तिल मिलाएं। इस उपाय से शनि दोष और रोग दूर हो...

Tuesday, 10 September 2019

23:30

श्राद्ध पक्ष में करें अपने पितरों को प्रसन्न क्योंकि पित्र प्रसन्न होते हैं तो सभी देवता भी प्रसन्न होते हैं


जब पित्र आप पर खुश तो अब सभी देवता आपसे प्रसन्ना होते हैं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के बाद जीव का शरीर से नाता टूट जाने के बावजूद भी उसका सूक्ष्म शरीर बना रहता है वह सोच में शरीर अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रतिनिधि चाहता है और प्रतिनिधि वही हो सकता है जो योग्य हो विश्वास पात्र हो और उसमें अपनत्व की भावना हो प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों से यह अपेक्षा रखता है कि वे सदाचारी हो सांसों में श्राद्ध करने का अधिकार भी उसी को दिया है जो सर्वथा योग्य पात्र हो श्राद्ध एवं तर्पण यह दोनों शब्द चित्र कर्म के प्रयुक्त होते हैं जिस गया से सत्य धारण किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं और जो भी वस्तु श्रद्धा पूर्वक पितरों को लक्ष्य करके उन्हें अर्पण की जाती है अथवा कार्य किए जाते हैं उसे श्राद्ध कहते हैं जिसमें इधर प्राप्त होते हैं उसे तर्पण कहते हैं प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ व सूत्र कार ने कहा है कि जिस समय स्वाहा बोलकर देवताओं के लिए हवन पदार्थ अग्नि में डाला जाता है उसी प्रकार पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक स्वधा बोलते हुए जो प्रदान किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं इस स्कंद पुराण के अनुसार श्राद्ध में श्रद्धा ही मूल है गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा होता है अतः जब कभी भी देवताओं के निमित्त कोई कार्य संपादित होते हैं तो उनके पूर्व ही चित्रकार श्राद्ध किया जाता है पंडित गिरजा शंकर शास्त्री के अनुसार पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा है अतः जब कभी भी देवताओं की निर्मिती कोई कार्य यज्ञ आदि संपादित होते हैं तो उससे पूर्व पितरों को याद किया जाता है अर्थात पिता प्रसन्न हो तब सब देव प्रसन्न होते हैं अब प्रश्न उठता है कि क्या किया गया श्राद्ध पितरों को प्राप्त होता है यदि हां तो इसका प्रमाण क्या है इस विषय में आचार्यों देशों की मान्यताओं अनुसार आपने चाहे कितने भी दोस्त क्यों ना हो लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों में आमतौर पर यही अपेक्षा रखता है कि वह सदाचारी होंगे इसलिए पितर अपेक्षा रखते हैं और कहते हैं कि जब आपका शरीर नहीं था बाय रूप में भटक रहे थे तब माता-पिता के द्वारा उन्हें के अंश से शरीर की प्राप्ति हुई बता जब हम लोग स्कूल से सोच में चले गए हैं तब आपका कर्तव्य है कि पितरों की तृप्ति हेतु तर्पण एवं शादी अवश्य करें पितरों की संख्या ग्रंथों में अनेक कही गई है लेकिन मुख्य साथ भीतर माने जाते हैं जिन्हें देवी पिता कहा जाता है सुखाना आंद्रेस सोश सोम बैराज अग्नि स्वाद तथा बाहर पद आरंभ और आदिकाल से श्रद्धा की परंपरा चली आ रही है बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के वर्णन है कि राजा दशरथ के दाह कर्म के पश्चात भरत जी ने 12 दिन तक साथ किया था भरत द्वारा पिता की मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात भगवान श्री रामचंद्र जी ने भी मंदाकिनी नदी में जाकर पिता के निमित्त पिंडदान कर दान किया था इसलिए हमें अपने पितरों सुमिरन करते हुए उनके श्राद्ध पक्ष में तर्पण और पिंडदान अवश्य करना चाहिए।

Tuesday, 27 August 2019

00:39

जीवन को संचालित करने की प्रेरणा देते हैं भगवान गणेश

वैसे तो गणेश जी की जन्म की गाथा निराली है उसमें कहा गया है कि गणेश जी भगवान शिव के पुत्र हैं और हर समस्या का समाधान करने वाले भी हैं इस संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी शक्ति का यकीन करता है और उसकी आराधना भी करता है लेकिन विघ्नहर्ता श्री गणेश की पूजा सभी देवताओं से पहले की जाती है पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री गणेश शिव पुत्र हैं  चूंकि शिव जी का निवास स्थान कैलाश पर्वत है इडलिये कहानी के अनुसार एक बार भगवान शिव अपने गणों के साथ भ्रमण करने के लिए गए थे और घर पर पार्वती जी अकेली थी  एकांत पाकर पार्वती जी स्नान करने के लिए तैयार होने लगी तभी उनके मन में एक विचार आया कि अगर स्नान करते वक्त बीच में कोई घर के भीतर आ गया तो यह उचित नहीं होगा इसलिए उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण प्रतिष्ठा करके उसे दरवाजे पर बिठा दिया और निर्देशित किया कि जब तक मैं नहीं बोलूंगी किसी को अंदर मत आने देना कुछ देर के बाद शिवजी जब वापस आए तब वह अपने घर जाने लगे तो गणेश जी ने उन्हें रोका और बोला मेरी मां का निर्देश है कि आप अंदर नहीं जा सकते इसके बाद शिव के गणों के बीच गणेश जी का युद्ध हुआ जिसमें गणेश जी ने सभी घरों को हरा दिया उसके बाद शिवजी को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने त्रिशूल से गणेश जी का सिर काट दिया जब या बाद पार्वती जी को पता चली तब वह बड़ी व्याकुल हुई और शिवजी से अपने बालक को जीवित करने को कहा तब शिवजी ने कहा कि अब यह बालक तभी जीवित हो सकता है जब इस पर कोई दूसरा सिर लगेगा उन्होंने अपने गणों को आदेश किया कि कोई सिर लेकर आए जिसे गणेश जी को जीवित किया जा सके गण आज्ञा पाकर शेर की तलाश में निकल गए और उन्हें कोई शेर नहीं मिला तो एक हाथी का बच्चा लेटा हुआ था उसका सिर काट कर ले आए और इस तरीके से गणेश जी का पुनर्जीवन हुआ अपनी माता के के निर्देश को पालन करते हुए गणेश जी ने अपना जीवन खो दिया था इसलिए हाथी के सिर वाले गणेश जी गणेश जी के नाम से विख्यात हो गए जिसके बाद ब्रह्मा विष्णु महेश सभी देव ने मिलकर गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि आप सर्वश्रेष्ठ हैं इस सृष्टि पर जब कोई किसी भी देवता की पूजा होगी तब सर्वप्रथम आपको पूजा जाएगा तभी से गणेश जी सर्वप्रथम पूजनीय देवता बन गए इसके बाद गणेश जी सदा ही इंसान के जीवन को संचालित होते की प्रेरणा देते रहते है ।