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Sunday, 19 July 2020

12:05

INDIA:भारत में एक दिन में आए सबसे ज्यादा करीब 39 हजार नए मामले 543 मरीजों की हुई मौत-के सी शर्मा

कोरोना वायरस का नए मामले रोजाना नए रिकॉर्ड बनाते जा रहे हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों को मुताबिक बीत 24 घंटे में भारत में कोरोना के रिकॉर्ड 38,902 नए पॉजिटिव केस सामने आए हैं. इसके साथ ही देश में कोरोना के कुल मामले 10,77,618 हो गए हैं। इनमें से 3,73,379 एक्टिव केस हैं. साथ ही अभी तक 6,77,423 मरीजों को या तो अस्पताल से डिस्चार्ज किया जा चुका है या फिर वे ठीक हो चुके हैं.

दुनिया में तीसरा सबसे प्रभावित देश
कोरोना संक्रमितों की संख्या के हिसाब से भारत दुनिया का तीसरा सबसे प्रभावित देश है. अमेरिका, ब्राजील के बाद कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित भारत है. लेकिन अगर प्रति 10 लाख आबादी पर संक्रमित मामलों और मृत्युदर की बात करें तो अन्य देशों की तुलना में भारत की स्थिति बहुत बेहतर है. भारत से अधिक मामले अमेरिका (3,833,271), ब्राजील (2,075,246) में हैं. देश में कोरोना मामले बढ़ने की रफ्तार भी दुनिया में तीसरे नंबर पर बनी हुई है.

दुनिया में कहां कितने केस, कितनी मौतें
अमेरिका अभी भी कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों की लिस्ट में सबसे ऊपर है. यहां अबतक 38.33 लाख से ज्यादा लोग संक्रमण के शिकार हो चुके हैं, जबकि एक लाख 42 हजार से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. अमेरिका में पिछले 24 घंटों में 63 हजार से ज्यादा नए केस आए, जबकि 813 लोगों की मौत हुई. वहीं ब्राजील में भी कोरोना का कहर बरकरार है. ब्राजील में संक्रमण के मामले 20 लाख के पार पहुंच चुके हैं, जबकि 78 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं.

एक्टिव केस के मामले में टॉप-5 राज्य
आंकड़ों के मुताबिक, देश में इस वक्त 3 लाख 73 हजार 379 कोरोना के एक्टिव केस हैं. सबसे ज्यादा एक्टिव केस महाराष्ट्र में हैं. महाराष्ट्र में 93 हजार से ज्यादा संक्रमितों का अस्पतालों में इलाज चल रहा है. इसके बाद दूसरे नंबर पर तमिलनाडु, तीसरे नंबर पर दिल्ली, चौथे नंबर पर गुजरात और पांचवे नंबर पर पश्चिम बंगाल है. इन पांच राज्यों में सबसे ज्यादा एक्टिव केस हैं. एक्टिव केस मामले में दुनिया में भारत का चौथा स्थान है. यानी कि भारत ऐसा चौथा देश है, जहां फिलहाल सबसे ज्यादा संक्रमितों का अस्पतालों में इलाज चल रहा है.

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मुताबिक 18 जुलाई तक टेस्ट किए गए सैंपलों की कुल संख्या 1,37,91,869 है, जिसमें से 3,58,127 सैंपलों का कल टेस्ट किया गया है.
11:58

धर्म:105 की अनपढ़ रतनबाई को याद हैं गीता के 700 श्लोक-के सी शर्मा

उम्र की कोई सीमा नहीं होती है. या यू कहें की उम्र किसी भी काम में बाधा नहीं डालता है, बस आपके अंदर जज्बा होना चाहिए. ऐसा ही जज्बा दिखा रावतभाटा चारभुजा की 105 साल की अनपढ़ महिला रतनबाई में. अनपढ़ होने के बावजूद उन्हें आज भी गीता के 700 श्लोक याद हैं. 

अगर देखा जाए तो जिस उम्र में रतनबाई है उस उम्र लोंग अपनों को भी बड़ी मुश्किल से पहचान पाते हैं. लेकिन रतनबाई को पिछले 80 सालों से गीता के 18 अध्याय के 700 श्लोक मौखिक याद है. बता दें रतनबाई को सुनने में परेशानी होती है, और आंखो से भी कम दिखता है. लेकिन वह अभी तक पूरी तरह स्वस्थ्य हैं. 

अनपढ़ रतनबाई 25 साल की उम्र में एक मंदिर में ये श्लोक सीखे थे. हालांकि वह पढ़ नहीं पाती थी लेकिन हर रोज कुछ श्लोक याद कर लेती थी और रोज उसका अध्ययन करती थी. इस तरह से उन्होंने गीता के 700 श्लोकों याद कर लिया था. 

रतनबाई शुरू से पूजा-पाठ में लीन रहती थी. वह आज भले 105 साल की हो गई हैं लेकिन आज भी उनके अंदर वही जोश है जो 25 साल की उम्र था. वो रोज राक्तभाटा के प्रसिद्ध चारभुजा मंदिर सीढ़ियां चढ़कर जाती है. और अपने आराध्य की पूजा करती है. रतनबाई से हर किसी को प्ररेणा लेनी चाहिए.

Thursday, 2 July 2020

23:36

जाने,पागी एक देशभक्त की गाथा-के सी शर्मा


फोटो में जो वृद्ध गड़रिया है  वास्तव में ये सेना का सबसे बड़ा राजदार था पूरी पोस्ट पड़ो इनके चरणों मे आपका सर अपने आप झुक जाएगा, 2008 फील्ड मार्शल*मानेक शॉ* वेलिंगटन अस्पताल, तमिलनाडु में भर्ती थे। गम्भीर अस्वस्थता तथा अर्धमूर्छा में वे एक नाम अक्सर लेते थे - 'पागी-पागी!' डाक्टरों ने एक दिन पूछ दिया “Sir, who is this Paagi?” 

सैम साहब ने खुद ही brief किया...

1971 भारत युद्ध जीत चुका था, जनरल मानेक शॉ ढाका में थे। आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, dinner आज उसके साथ करूँगा! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था। Dinner में एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी पागी ने। 

उत्तर गुजरात के सुईगाँव अन्तर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक border post को रणछोड़दास post नाम दिया गया। यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई post हो, साथ ही उनकी मूर्ति भी लगाई गई हो। 

पागी यानी 'मार्गदर्शक', वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए। 'रणछोड़दास रबारी' को जनरल सैम मानिक शॉ इसी नाम से बुलाते थे। 

गुजरात के बनासकांठा ज़िले के पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के थे रणछोड़दास। भेड़, बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे। जीवन में बदलाव तब आया जब उन्हें 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया। 

हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार हैं। इन्सानी पैरों के निशान देखकर वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे। कितनी देर पहले का निशान है तथा कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आँकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो।

1965 युद्ध की आरम्भ में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा स्थित विधकोट पर कब्ज़ा कर लिया, इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक हत हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10000 सैनिकोंवाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना आवश्यक था। तब आवश्यकता पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की! रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत उन्होंने सेना को तय समय से 12 घण्टे पहले मञ्ज़िल तक पहुँचा दिया था। सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद चुना था तथा सेना में एक विशेष पद सृजित किया गया था 'पागी' अर्थात पग अथवा पैरों का जानकार।

भारतीय सीमा में छिपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा अनुमानित संख्या केवल उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी, तथा इतना काफ़ी था भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए।

1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद पहुँचवाना भी पागी के काम का हिस्सा था। पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी। सैम साब ने स्वयं ₹300 का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था।

पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके योगदान के लिए - संग्राम पदक, पुलिस पदक व समर सेवा पदक! 

27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई तथा 2009 में पागी ने भी सेना से 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' ले ली। तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी ! जी हाँ, आपने सही पढ़ा... 108 वर्ष की उम्र में 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति'! सन् 2013 में 112 वर्ष की आयु में पागी का निधन हो गया।

आज भी वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा हैं। उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएँगी। अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण तथा शालीनता के कारण भारतीय सैन्य इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे 'पागी'। 

Monday, 22 June 2020

18:08

जानिए, क्या है भारतीय पञ्चाङ् -के सी शर्मा



१. शक और सम्वत्सर-

शक किसी निर्दिष्ट काल से दिनों की गणना है। १ की गिनती को कुश द्वारा प्रकट किया जाता है। इनका समूह शक्तिशाली हो जाता है, अतः इसे शक (समुच्चय) कहते हैं। कुश आकार के बड़े वृक्ष भी शक हैं, जैसे उत्तर भारत में सखुआ (साल) तथा दक्षिण में शक-वन (सागवान)। मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां भी शक थीं। पर यह जम्बू द्वीप का अंश था। शक द्वीप भारत के दक्षिण पूर्व में कहा गया है। यह आस्ट्रेलिया है जहां शक आकार के यूकलिप्टस वृक्ष बहुत हैं। भारत में हिमालय का दक्षिणी भाग ही शक (साल) क्षेत्र है जहां जन्म होने के कारण सिद्धार्थ बुद्ध को शाक्यमुनि कहते थे। पर गोरखपुर से दक्षिण पश्चिम ओड़िशा तक साल वृक्षों का क्षेत्र चला गया है जिसके दक्षिणी छोर पर राम ने ७ साल वृक्षों को भेदा था। यह भारत का लघु शक द्वीप है, जहां के ब्राह्मण शाकद्वीपीय कहलाते हैं।

चान्द्र और सौर वर्ष का समन्वय सम्वत्सर है। चन्द्रमा मन का नियन्त्रक है अतं पर्व चान्द्रतिथि के अनुसार होते है। ऋतु से समन्वय के लिये उसे सौर वर्ष के साथ मिलाया जाता है। इसके अनुसार समाज चलता है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। सम्वत्सर के अन्य कई अर्थ भी हैं-(१) पृथ्वी कक्षा, (२) सौर मण्डल जहां तक सूर्य प्रकाश १ सम्वत्सर में जाता है-१ प्रकाश वर्ष त्रिज्या का गोला। (३) गुरु वर्ष जो प्रायः सौर वर्ष के समान है। (४) वेदाङ्ग ज्योतिष के ५ प्रकार के वत्सरों में जो सौर वर्ष के सबसे निकट होता है उसे सम्वत्सर कहते हैं।

(१) स्वायम्भुव मनु काल-स्वायम्भुव मनु काल में सम्भवतः आज के ज्योतिषीय युग नहीं थे। यह व्यवस्था वैवस्वत मनु के काल से आरम्भ हुयी अतः उनसे सत्ययुग का आरम्भ हुआ। यदि ब्रह्मा से आरम्भ होता तो ब्रह्मा आद्य त्रेता में नहीं, सत्य युग के आरम्भ में होते। अथवा सत्ययुग पहले आरम्भ हो गया, पर सभ्यता का विकास काल त्रेता कहा गया। ब्रह्मा की युग व्यवस्था में युग पाद समान काल के थे जैसा ऐतरेय ब्राह्मण के ४ वर्षीय गोपद युग में या स्वायम्भुव परम्परा के आर्यभट का युग है। वर्ष का आरम्भ अभिजित् नक्षत्र से होता था, जिसे बाद में कार्त्तिकेय ने धनिष्ठा नक्षत्र से आरम्भ किया। कार्त्तिकेय काल में (१५८०० ई.पू.) यह वर्षा काल था। स्वायम्भुव मनु काल में यह उत्तरायण का आरम्भ था। किन्तु दोनों व्यवस्थाओं में माघ मास से ही वर्ष का आरम्भ होता था। मासों का नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के नक्षत्र से था, जो आज भी चल रहा है। मास का आरम्भ दोनों प्रकार से था-अमावास्या से या पूर्णिमा से। यह अयन गति के अन्तर के कारण बदलता होगा जैसा विक्रमादित्य ने महाभारत के ३००० वर्ष बाद शुक्ल पक्ष के बदले कृष्ण पक्ष से मासारम्भ कर दिया। दिन का आरम्भ भी कई प्रकार से था जैसा आज है।

ब्रह्मा के काल में सौर ऋतु वर्ष की भी गणना थी। इसमें सूर्य की उत्तरायण-दक्षिणायन गतियों के योग से वर्ष होता था। विषुव के उत्तर तथा दक्षिण ३-३ वीथियों में सूर्य १-१ मास रहता था। विषुव के उत्तर तथा दक्षिण में १२, २०, २४ अंश के अक्षांश वृत्तों से ये वीथियां बनती थीं। ३४० उत्तर अक्षांश का दिनमान सूर्य की इन रेखाओं पर स्थिति के अनुसार ८ से १६ घण्टा तक होगा। अतः दक्षिण से इन वृत्तों को गायत्री (६ x ४ अक्षर) से जगती छन्द (१२ x ४ अक्षर) तक का नाम दिया गया। यह नीचे के चित्र से स्पष्ट है। इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। इनके आधार पर पं. मधुसूदन ओझा ने आवरणवाद में इसकी व्याख्या की है (श्लोक १२३-१३२)। बाइबिल के इथिओपियन संस्करण में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी यही वर्णन है।

(२) ध्रुव पञ्चाङ्ग-ध्रुव को स्वायम्भुव मनु का पौत्र कहा गया है, किन्तु उनमें कुछ अधिक अन्तर होगा। भागवत, विष्णु पुराणों के अनुसार ध्रुव को परम पद मिला तथा उनके चारों तरफ सप्तर्षि भ्रमण से काल गणना शुरु हुई। उस काल से ८१०० वर्ष का ध्रुव संवत्सर शुरु हुआ जिसका तीसरा चक्र ३०७६ ई.पू. में पूर्ण हुआ। ध्रुव काल ३ x ८१०० + ३०७६ = २७,३७६ ई.पू हुआ। कुंवरलाल जैन ने अपूर्ण वंशावली के आधार पर पृथु तक की काल गणना की है। संवत्सरों के अनुसार इसके २ आधार हो सकतेहैं-स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक के काल को ६ भाग में बांटने पर १-१ मन्वन्तर का काल आयेगा। यह प्रायः १५,२००/६ = २५३४ वर्ष होगा। यह सप्तर्षि वत्सर के निकट है, अतः २७०० वर्ष का सप्तर्षि चक्र तथा उसका ३ गुणा ध्रुव वर्ष लेना अधिक उचित है। ध्रुव काल के वर्णन में प्रायः २७०० वर्ष का लघु-मन्वन्तर तथा ८१०० वर्ष का कल्प हो सकता है। १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप का प्रभुत्व था जिसपर बाद में कार्त्तिकेय ने आक्रमण किया।

(३) कश्यप-१७५०० ई.पू. में देव-असुरों की सभ्यता आरम्भ हुई। तथा राजा पृथु काल में पर्वतीय क्षेत्रों को समतल बना कर खेती, नगर निर्माण आदि हुये। खनिजों का दोहन हुआ। इन कालों में नया युग आरम्भ हुआ पर उनका पञ्चाङ्ग स्पष्ट नहीं है।

(४) कार्त्तिकेय पञ्चाङ्ग-पृथ्वी के उत्तर ध्रुव की दिशा अभिजित् से हट गयी थी, अतः १५,८०० ई.पू. में कार्त्तिकेय ने बह्मा की सलाह से धनिष्ठा से वर्ष आरम्भ किया जो वेदाङ्ग ज्योतिष में चलता है।

ऋग् ज्योतिष (३२, ५,६) याजुष ज्योतिष (५-७)

माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥

स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ।स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥

प्रायः १६००० ईसा पूर्व में अभिजित् नक्षत्र से उत्तरी ध्रुव दूर हो गया जिसे उसका पतन कहा गया है। तब इन्द्र ने कार्त्तिकेय से कहा कि ब्रह्मा से विमर्श कर काल निर्णय करें-

महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-

अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा।इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥

तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥

धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः।रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥

उस काल में धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश के समय वर्षा का आरम्भ होता था, जब दक्षिणायन आरम्भ होता था। कार्त्तिकेय के पूर्व असुरों का प्रभुत्व था, अतः दक्षिणायन को असुरों का दिन कहा गया है-

सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १-मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते॥१३॥

सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥

(५) विवस्वान् पञ्चाङ्ग-यह वैवस्वत मनु के पिता थे अतः इनका भी काल १३९०२ ई.पू. माना जा सकता है, जिसके बाद १२००० वर्ष का अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी चक्र तथा चैत्र शुक्ल से वर्ष आरम्भ हुये। इसके बाद सूर्य सिद्धान्त के कई संशोधन हुये। मयासुर का संशोधन जल प्रलय के बाद सत्ययुग समाप्ति के अल्प (१२१ वर्ष) बाद रोमकपत्तन में हुआ।

सूर्य सिद्धान्त प्रथम अध्याय-अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुरः। रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम्॥२॥

वेदाङ्गमग्र्यखिलं ज्योतिषां गतिकारणम्। आराधयन्विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुष्करम्॥३॥

तस्मात् त्वं स्वां पुरीं गच्छ तत्र ज्ञानम् ददामि ते।

रोमके नगरे ब्रह्मशापान् म्लेच्छावतार धृक्॥ (पूना, आनन्दाश्रम प्रति)

शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलम्॥९॥

(६) इक्ष्वाकु काल से भी काल गणना आरम्भ हुई थी। महालिंगम के अनुसार उनका काल १-११-८५७६ ई.पू. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ। यह तंजाउर के मन्दिरों की गणना के आधार पर है।

(७) परशुराम पञ्चाङ्ग-६१७७ ई.पू.-परशुराम के निधन पर कलम्ब (कोल्लम्) सम्वत्। इसका अन्य प्रमाण है कि मेगास्थनीज ने सिकन्दर से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व अर्थात् ६७७७ ई.पू. अप्रैल मास में डायोनिसस का भारत आक्रमण लिखा है जिसमें पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया थ। उससे १५ पीढ़ी बाद हरकुलस (विष्णु) का जन्म हुआ। इस काल के विष्णु अवतार परशुराम थे। उनका काल प्रायः ६०० वर्ष बाद आता है जो १५ पीढ़ी का काल है। मयासुर के ३०४४ वर्ष बाद ऋतु १.५ मास पीछे खिसक गया था अतः नये सम्वत् का प्रचलन हुआ।

(८) कलि के पञ्चाङ्ग-राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू. में हुआ था पर उस काल के किसी पञ्चाङ्ग का उल्लेख नहीं है। परशुराम के ३००० वर्ष बाद कलियुग आरम्भ में ही नये पञ्चाङ्ग की आवश्यकता हुयी। युधिष्ठिर काल में ४ प्रकार के पञ्चाङ्ग हुये-(क) युधिष्ठिर शक-यह उनके राज्याभिषेक के दिन १७-१२-३१३९ ई.पू. से हुआ। उसके ५ दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी को हुआ। अतः अभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था। (ख) कलि सम्वत्-शासन के ३६ वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर १७-२-३१०२ ई.पू. उज्जैन मध्यरात्रि से कलियुग आरम्भ हुआ जब भगवान् कृष्ण का देहान्त हुआ। उसके २दिन २-२७-३० घं.मि.से. बाद २०-२-३१०२ ई.पू २-२७-३० घं.मि.से. से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आरम्भ हुआ। (ग) जयाभ्युदय शक-भगवान् कृष्ण के देहान्त के ६ मास ११ दिन बाद २२-८-३१०२ ई.पू. को जब विजय के बाद जय सम्वत्सर आरम्भ हुआ, तो युधिष्ठिर ने अभ्युदय के लिये सन्यास लिया। यह परीक्षित शासन से आरम्भ होता है तथा जनमेजय ने इसी का प्रयोग अपने दान-पत्रों में किया है। (घ) कलि के २५ वर्ष बीतने पर कश्मीर में युधिष्ठिर का देहान्त हुआ जब सप्तर्षि मघा से निकले। उस समय (३०७६ ई.पू. मेष संक्रान्ति) से लौकिक या सप्तर्षि सम्वत्सर आरम्भ हुआ जो कश्मीर में प्रचलित था तथा राजतरङ्गिणी में प्रयुक्त है।

(९) भटाब्द-आर्यभट काल से केरल में भटाब्द प्रचलित था। महाभारत काल में २ प्रकार के सिद्धान्त प्रचलित थे। पराशर मथ तथा आर्य मत। यहां पराशर मत पराशर द्वारा लिखित विष्णुपुराण में है जो मैत्रेय ऋषि ने उनको खण्ड १ तथा २ में कहा है। यह सूर्य सिद्धान्त की परम्परा में है, अतः ऋषि को मैत्रेय (मित्र =सूर्य, सौर वर्ष का प्रथम मास, उत्तरायण से) कहा गया है। द्वितीय मत आर्य मत है जो स्वायम्भुव मनु की परम्परा से था। इसकी परम्परा में कलि के कुछ बाद (३६० वर्ष) आर्यभट ने आर्यभटीय लिखा। विवस्वान् या सूर्य पिता हैं, उनके पूर्व के स्वायम्भुव मनु ब्रह्मा या पितामह हैं। आज भी आर्य (अजा)का अर्थ पटना के निकट तथा ओडिशा आदि में पितामह होता है।

(१०) जैन युधिष्ठिर शक-जिनविजय महाकाव्य का जैन युधिष्ठिर शक ५०४ युधिष्ठिर शक (२६३४ ई.पू.) में आरम्भ होता है। इसके अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म ५५७ ई.पू. (२०७७) क्रोधी सम्वत्सर (सौर मत) में तथा शंकराचार्य का निर्वाण ४७७ ई.पू. (२१५७) राक्षस सम्वत्सर में कहा है।

यह पार्श्वनाथ का संन्यास या निधन काल है। उनका संन्यास पूर्व नाम युधिष्ठिर रहा होगा या वे वैसे ही धर्मराज या तीर्थङ्कर थे। भगवान् महावीर (जन्म ११-३-१९०२ ई.पू.) में पार्श्वनाथ का ही शक चल रहा था। युधिष्ठिर की ८ वीं पीढ़ी में निचक्षु के शासन में हस्तिनापुर डूब गया था- यह सरस्वती नदी के सूखने का परिणाम था। उस समय १०० वर्ष की अनावृष्टि कही गयी है जब दुर्भिक्ष रोकने के लिये शताक्षी या शाकम्भरी अवतार हुआ।दुर्गा-सप्तशती (११/४६-४९)

(११) शिशुनाग काल-पाल बिगण्डेट की पुस्तक बर्मा की बौद्ध परम्परा में बुद्ध निर्वाण से अजातशत्रु काल में एक नये वर्ष का आरम्भ कहा गया है (बर्मी में इत्यान = निर्वाण)। इसके १४८ वर्ष पूर्व अन्य वर्ष आरम्भ हुआ था जिसे बर्मी में कौजाद (शिशुनाग?) कहा है। बुद्ध निर्वाण (२७-३-१८०७ ई.पू.) से १४८ वर्ष पूर्व १९५४ ई.पू. में शिशुनाग का शासन समाप्त हुआ।

(१२) नन्द शक-महापद्मनन्द का अभिषेक सभी पुराणों का विख्यात कालमान है। यह परीक्षित जन्म के १५०० (१५०४) वर्ष बाद हुआ था। इसमें १५०० को पार्जिटर ने १०५० कर दिया जिससे कलि आरम्भ को बाद का किया जा सके।

(१३) शूद्रक शक-यह ७५६ ई.पू. में आरम्भ हुआ। जेम्स टाड ने सभी राजपूत राजाओं को विदेशी शक मूल का सिद्ध करने के लिये उनकी बहुत सी वंशावलियां तथा ताम्रपत्र आदि नष्ट किये तथा राजस्थान कथा (Annals of Rajsthan) में अग्निवंशी राजाओं का काल थोड़ा बदल कर प्रायः ७२५ ई.पू. कर दिया।

काञ्चुयल्लार्य भट्ट-ज्योतिष दर्पण-पत्रक २२ (अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, अजमेर एम्.एस नं ४६७७)-

बाणाब्धि गुणदस्रोना (२३४५) शूद्रकाब्दा कलेर्गताः॥७१॥ गुणाब्धि व्योम रामोना (३०४३) विक्रमाब्दा कलेर्गताः॥

इस समय असुर (असीरिया के नबोनासर आदि) आक्रमण को रोकने के लिये ४ प्रमुख राजवंशों का संघ आबू पर्वत पर विष्णु अवतार बुद्ध की प्रेरणा से बना। इन राजाओं को अग्रणी होने के कारण अग्निवंशी कहा गया-परमार, प्रतिहार, चालुक्य तथा चाहमान। भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६/४५-४९)।४ राजाओं का संघ होने के कारण यह कृत संवत् भी कहा जाता है तथा इन्द्राणीगुप्त को सम्मान के लिये शूद्रक कहा गया-शूद्र ४ जातियों का सेवक है।

(१४) चाहमान शक-दिल्ली कॆ चाहमान राजा ने ६१२ ईसा पूर्व में असीरिया की राजधानी निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जिसका उल्लेख बाइबिल में कई स्थानों पर है। इसके नष्टकर्त्ता को सिन्धु पूर्व के मधेस (मध्यदेश, विन्ध्य तथा हिमालय के बीच) का शासक कहा गया है।
इस समय जो शक आरम्भ हुआ उसका उल्लेख वराहमिहिर की बृहत् संहिता में है तथा कालिदास, ब्रह्मगुप्त ने भी इसी का पालन किया है। वराहमिहिर-बृहत् संहिता (१३/३)-

आसन् मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ। षड्-द्विक-पञ्च-द्वि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥

(१५) श्रीहर्ष शक (४५६ ईसा पूर्व)-इसका उल्लेख अलबरूनि ने किया है। शूद्रक के बाद ३०० वर्ष तक मालवगण चला-जिसे मेगस्थनीज ने ३०० वर्षों का गणराज्य कहा है। लिच्छवी तथा गुप्त राजाओं ने इसका प्रयोग किया है पर इसे निरक्षर इतिहासकारों ने हर्षवर्धन (६०५-६४६ इस्वी) से जोड़ दिया है।

(१६) विक्रम संवत्-५७ ईसा पूर्व में उज्जैन के परमार वंशी राजा विक्रमादित्य (८२ ईसा पूर्व-१९ ईस्वी) ने आरम्भ किया। उनका राज्य (परोक्षतः) अरब तक था तथा जुलिअस सीजर के राज्य में भी उनके संवत् के ही अनुसार सीजर के आदेश के ७ दिन बाद विक्रम वर्ष १० के पौष कृष्ण मास के साथ वर्ष का आरम्भ हुआ।

History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.

Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”

यहां बिना गणना के मान लिया गया है कि वर्ष आरम्भ के दिन शुक्ल पक्ष का आरम्भ था, पर वह विक्रम सम्वत् के पौष मास का आरम्भ था। केवल विक्रम वर्ष में ही चान्द्र मास का आरम्भ कृष्ण पक्ष से होता है. बाकी सभी शुक्ल पक्ष से आरम्भ होते हैं। इसी विक्रमादित्य के दरबार में कालिदास, वराहमिहिर आदि ९ रत्न विख्यात थे।

(१७) शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के देहान्त के बाद ५० वर्ष तक भारत विदेशी आक्रमणों का शिकार रहा। तब उनके पौत्र शालिवाहन ने उनको पराजित कर सिन्धु के पश्चिम भगा दिया। उनके काल में प्राकृत भाषाओं का प्रयोग राजकार्य में आरम्भ हुआ। इनके काल में ईसा मसीह ने कश्मीर में शरण लिया (हजरत बाल) ।

(१८) कलचुरि या चेदि शक (२४६ इसवी)

(१९) वलभी भंग (३१९ ईस्वी)-गुप्त राजाओं की परवर्त्ती शाखा गुजरात के वलभी में शासन कर रही थी जिसका अन्त इस समय हुआ। निरक्षर इतिहासकार इसके १ वर्ष बाद गुप्त काल का आरम्भ कहते हैं।

२. भारतीय पञ्चाङ्ग में समन्वय-भारत में दिन के सूक्ष्म निर्धारण के लिये ५ प्रकार से दिन संख्या गिनते हैं-तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। अतः ऐतिहासिक तिथियों में यदि ये सभी ठीक निकलें तब तिथि ठीक होगी।

दिन का आरम्भ कई प्रकार से मानते हैं-(१) ज्योतिषीय गणना के लिये अर्धरात्रि से दिन मानते हैं क्योंकि किसी देशान्तर रेखा के सभी स्थानों पर एक साथ अर्ध्हरात्रि होगी। सूर्योदय अक्षांश के अनुसार भिन्न-भिन्न होगा।

(२) लोग सूर्योदय के समय उठते हैं, अतः सूर्योदय से लौकिक दिन आरम्भ होता है।

(३) पितर काम या सूर्य छाया के अनुसार माप के लिये मध्याह्न से दिन का आरम्भ होता है। इस समय छाया का सिरा कुतुप (कुप्पी) आकार में घूमता है अतः उस मुहूर्त्त को कुतुप कहते हैं। कुतुप आकार की छाया को मीन (२ वृत्तों का कटान) से विभाजित कर उत्तर दिशा निकालते हैं, अतः इसे कुतुप-मीन (कुतुबमीनार) कहते हैं। ऐसा ही काम चुम्बकीय कम्पास से होतॆ है, अतः उसे कुतुबनुमा कहते हैं।

(४) ग्रह या तारा के वेध (दिशा देखना) के लिये सूर्यास्त से दिन का आरम्भ होता है।

मास का आरम्भ शुक्ल या कृष्ण पक्ष से होता है। पर अधिक मास की गणना के लिये अमावास्या के अन्त से गिनते हैं। उस मास में सूर्य संक्रान्ति (राशि परिवर्तन) नहीं होने पर वह अधिक मास होता है।

वर्ष भी ४ प्रकार से आरम्भ होते हैं-विषुव संक्रान्ति (जब सूर्य विषुव रेखा पर लम्ब हो) चैत्र मास में पड़ती है अतः संक्रान्ति या चैत्र से वर्ष आरम्भ होता है। उत्तरायण से दिव्य दिन या वर्ष आरम्भ होता है। वर्षा से मूलतः सम्वत् आरम्भ होता था, अतः उसे वर्ष कहा गया। एक वर्षा (मौनसून) का क्षेत्र भी वर्ष है। दक्षिणायन में जब सूर्य विषुव रेखा पर लम्ब हो तब भी वर्ष आरम्भ होता है। उस समय भाद्र शुक्ल १२ को वामन ने बलि से इन्द्र का राज्य लिया था अतः राजाओं का काल उसी दिन से गिनते हैं (ओड़िशा की अंक पद्धति)।

भारत में राशियों का स्थान देकने के लिये (आंख या दूरदर्शक से) स्थिर ताराओं के अनुसार है। इसे निरयण कहते हैं। पर ऋतु आदि की गणना के लिये जिस विन्दु पर सूर्य उत्तर दिशा में विषुव रेखा को पार करता है उसे शून्य विन्दु मानते हैं। दोनों के शून्य विन्दु का अन्तर अयन या अयनांश है। यह विपरीत दिशा में घूमता है अतः निरयण में अयनांश जोड़ने पर सायन राशि आती है।
Sabhar Arun upadhyay

Wednesday, 17 June 2020

17:44

जानिए, क्या है "नजर दोष" और उससे बचाव के उपाय के सी शर्मा



नजर दोष के लिये नमक, मिर्च और राई से की जानेवाली विधि!

इस विधि के लिए उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता!

1. समुद्री नमक - 2 चम्मच
2. राई - 2 चम्मच
3. सुखी लालमिर्च नीचे दिए विवरण अनुसार
4. लकड़ी की चोटी चौकी - 1
5. विधि करने के लिये व्यक्ति जो कि किसी भी प्रकार के आवेश से ग्रसित ना हो।
6. जलते हुए कोयले

मिर्चों की संख्या अनुभव किए जा रहे कष्ट की तीव्रता पर निर्भर करता है । विधि में कष्ट की तीव्रता अनुसार कितनी संख्या में मिर्च का उपयोग किया जाए इसके लिए मार्गदर्शक सूत्र नीचे दी गर्इ सारणी में हैं ।

*कष्ट की तीव्रता*          
        
निरंतर शरीर भारी लगना, 3 - मिर्च

जी मिचलाना,अधीरता (बेचैनी), 
अचानक पसीना आना, 
नकारात्मक विचार      5 - मिर्च

वाणी पर नियंत्रण न होना, 
दृष्टि में अचानक धुंधलापन आना, 
मुंह सूखना, अपशब्द बोलना, 
आत्महत्या के विचार      7 - मिर्च

अचेतना (बेहोशी), अनिष्ट शक्ति का प्रकटीकरण, दुष्ट विचार  9- मिर्च

*कुदृष्टि (नजर) दोष के लिये*  


प्रथम प्रार्थना करना जिसकी कुदृष्टि उतारनी है उसे श्री हनुमानजी से प्रार्थना करनी चाहिए  मैं (अपना नाम लें) प्रार्थना करता हूं मुझे लगी कुदृष्टि उतर जाए और (जो कुदृष्टि उतार रहा है उसका नाम लें) पर किसी भी प्रकार का अनिष्ट प्रभाव न पडे। जो कुदृष्टि उतार रहा है वह श्री हनुमानजी से प्रार्थना करे कि उस पर कष्टदायक नकारात्मक शक्ति का कोई प्रभाव न हो। 

द्वितीय कार्य अपना स्थान ग्रहण करें जिस अनिष्ट शक्ति से आवेशित व्यक्ति की कुदृष्टि उतारनी है उसे लकडी की चौकी पर पूर्व दिशा की ओर मुख कर, घुटनों को छाती से लगा कर उकडू बैठने के लिए कहें । 

तृतीय कार्य
  विधि करना जो व्यक्ति कार्य कर रहा हो उसे दूसरे व्यक्ति के समक्ष खडा होना चाहिए। जितनी मात्रा में रवेदार नमक और राई मुट्ठी में लिए जा सकते हैं वह दोनों हाथों में लें। अपने सामने दोनों मुट्ठियां गुणाकार चिन्ह के आकार में रखें। दोनों मुट्ठियां बाधित व्यक्ति के मस्तक से पैरों तक एक दूसरे की विपरीत दिशा में घुमाते हुए नीचे लाएं एवं धरती का स्पर्श करें। हाथों को केवल प्रारंभ में गुणाकार स्थिति में रखा जाता है, किंतु जैसे ही क्रिया का आरंभ होता है और हाथ विलग होते हैं, एक साथ दाहिनी मुट्ठी घडी की दिशा में तथा बांयीं मुट्ठी घडी की विपरीत दिशा में मस्तक से पैरों तक घुमाएं। धरती को स्पर्श करने के उपरांत पहले की तरह क्रिया करते हैं अर्थात हांथों को अलग कर एक साथ, दायीं मुट्ठी को घडी की दिशा में तथा बायीं मुट्ठी को घडी की विपरीत दिशा में पैरों से मस्तक तक ले जाते हैं। कुदृष्टि (नजर) उतारने की विधि करते समय 
यह बोलें... 
‘‘ आगंतुकों की, अशरीरी आत्माओं की, वृक्ष की, आने-जानेवालों की, विशिष्ट स्थान की लगी कुदृष्टि (नजर) उतर जाए और इसकी रोगों अथवा चोट से रक्षा हो ।’’ 

मुट्ठियों को घुमाने एवं धरती को स्पर्श करने का कारण👉 बताए अनुसार मुट्ठियों को घुमाने से, अनिष्ट स्पंदन कुदृष्टि (नजर) उतारने वाले पदार्थ में सोख लिए जाते हैं तदुपरांत धरती को स्पर्श कराने पर वे धरती द्वारा खींच लिए जाते हैं। मुट्ठियों को कितनी बार घुमाना है यह इस बात पर निर्भर करता है कि नजर की तीव्रता कितनी है। 
तंत्र करने वाले प्राय: तंत्र प्रयोग विषम (odd) संख्या में करते हैं अत: मुट्ठियों को विषम संख्या में घुमाना चाहिए। 

चतुर्थ कार्य अंत में मुट्ठियों में लिए हुए सभी पदार्थ एक साथ सिगडी अथवा तवे पर जलते हुए कोयले पर डाल दें।

ये क्रिया केवल परोपकार के लिए ही प्रयोग में लाये।

Monday, 15 June 2020

19:16

जाने संसार के वन्धन से छुड़ाने के सवाल पर कबीर ने क्या कहा के सी शर्मा

किसी राजा ने संत कबीर जी से प्रार्थना की किः "
आप कृपा करके मुझे संसार बन्धन से छुड़ाओ।"
कबीर जी ने कहाः "आप तो धार्मिक हो... हर रोज पंडित से कथा करवाते हो, सुनते हो..."
"हाँ महाराज ! कथा तो पंडित जी सुनाते हैं, विधि-विधान बताते हैं, लेकिन अभी तक मुझे भगवान के दर्शन नहीं हुए हैं। अपनी मुक्तता का अनुभव नहीं हुआ। आप कृपा करें।"

"अच्छा मैं कथा के वक्त आ जाऊँगा।"
समय पाकर कबीर जी वहाँ पहुँच गये, जहाँ राजा पंडित जी से कथा सुन रहा था। राजा उठकर खड़ा हो गया क्योंकि उसे कबीर जी से कुछ लेना था। कबीर जी का भी अपना आध्यात्मिक प्रभाव था। वे बोलेः "राजन ! अगर कुछ पाना है तो आपको मेरी आज्ञा का पालन करना पड़ेगा।"
"हाँ महाराज !"
"मैं आपके तख्त पर बैठूँगा।
 वजीर को बोल दो कि मेरी आज्ञा का पालन करे।"
राजा ने वजीर को सूचना दे दी कि अभी ये कबीर जी राजा है। वे जैसा कहें, वैसा करना।
साहिब कबीर जी ने कहा कि एक खम्भे के साथ राजा को बाँधो और दूसरे खम्भे के साथ पंडित जी को बाँधो। राजा ने समझ लिया कि इसमें अवश्य कोई रहस्य होगा। वजीर को इशारा किया कि आज्ञा का पालन हो। दोनों को दो खम्भों से बाँध दिया गया। 

साहिब कबीर जी पंडित से कहने लगेः
"देखो, राजा साहब तुम्हारे श्रोता हैं। वे बँधे हुए हैं, उन्हें तुम खोल दो।"
पंडित जी - "महाराज ! मैं स्वयं बँधा हुआ हूँ। उन्हें कैसे खोलूँ ?"
कबीर जी ने राजा से कहाः "ये पंडित जी तुम्हारे पुरोहित हैं। वे बँधे हुए हैं। उन्हें खोल दो।"
राजा - "महाराज ! मैं स्वयं बँधा हुआ हूँ, उन्हें कैसे खोलूँ ?"

कबीर जी ने समझायाः

बँधे को बँधा मिले छूटे कौन उपाय ।
सेवा कर निर्बन्ध की पल में दे छुड़ाय ।।

'जो पंडित खुद बन्धन में है, जन्म-मरण के बन्धन से छूटा नहीं, उसको बोलते हो कि मुझे भगवान के दर्शन करा दो, संसार के बंधनों से छुड़ा दो?

अगर बंधन से छूटना है तो उनके पास जाओ जो स्वयं सांसारिक कर्म-भोग, जन्म-मरण के बंधनों से छूटे हैं। ऐसे निर्बन्ध ब्रह्मवेत्ता और कर्म-बंधनों से छुड़ाने वाले संसार में केवल एक सदगुरु ही होते हैं। जिनकी सेवा करके ही इस संसार के आवा-गमन से मुक्ति सम्भव है।

Saturday, 13 June 2020

20:22

तुलसीदास जी की पुस्तक रामचरितमानस पर विशेष के सी शर्मा



श्री रामचरितमानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित एक इतिहास की घटना है। इस ग्रन्थ को अवधी साहित्य (हिंदी साहित्य) की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। रामचरितमानस की लोकप्रियता अद्वितीय है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा मंगलवार और शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है।

श्री रामचरित मानस के नायक श्रीराम हैं जिनको एक मर्यादा पुरोषोत्तम के रूप में दर्शाया गया है जोकि अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी श्रीहरि नारायण भगवान के अवतार है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक आदर्श चरित्र मानव के रूप में दिखाया गया है। जो सम्पूर्ण मानव समाज ये सिखाता है जीवन को किस प्रकार जिया जाय भले ही उसमे कितने भी विघ्न हों तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। गोस्वामी जी ने रामचरित का अनुपम शैली में दोहों, चौपाइयों, सोरठों तथा छंद का आश्रय लेकर वर्णन किया है।

परिचय

रामचरित मानस १५वीं शताब्दी के कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया महाकाव्य है, जैसा कि स्वयं गोस्वामी जी ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में लिखा है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना का आरम्भ अयोध्या में विक्रम संवत १६३१ (१५७४ ईस्वी) को रामनवमी के दिन (मंगलवार) किया था। गीताप्रेस गोरखपुर के संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को २ वर्ष ७ माह २६ दिन का समय लगा था और उन्होंने इसे संवत् १६३३ (१५७६ ईस्वी) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन पूर्ण किया था। इस महाकाव्य की भाषा अवधी है।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द्र के निर्मल एवं विशद चरित्र का वर्णन किया है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत रामायण को रामचरितमानस का आधार माना जाता है। यद्यपि रामायण और रामचरितमानस दोनों में ही राम के चरित्र का वर्णन है परंतु दोनों ही महाकाव्यों के रचने वाले कवियों की वर्णन शैली में उल्लेखनीय अन्तर है। जहाँ वाल्मीकि ने रामायण में राम को केवल एक सांसारिक व्यक्ति के रूप में दर्शाया है वहीं तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम को भगवान विष्णु का अवतार माना है।

रामचरितमानस को तुलसीदास ने सात काण्डों में विभक्त किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं - बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड) और उत्तरकाण्ड। छन्दों की संख्या के अनुसार बालकाण्ड और किष्किन्धाकाण्ड क्रमशः सबसे बड़े और छोटे काण्ड हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अवधी के अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है विशेषकर अनुप्रास अलंकार का। रामचरितमानस में प्रत्येक हिंदू की अनन्य आस्था है और इसे हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ माना जाता है।

संक्षिप्त मानस कथा

यह बात उस समय की है जब मनु और सतरूपा परमब्रह्म की तपस्या कर रहे थे। कई वर्ष तपस्या करने के बाद शंकरजी ने स्वयं पार्वती से कहा कि ब्रह्मा, विष्णु और मैं कई बार मनु सतरूपा के पास वर देने के लिये आये ("बिधि हरि हर तप देखि अपारा, मनु समीप आये बहु बारा") और कहा कि जो वर तुम माँगना चाहते हो माँग लो; पर मनु सतरूपा को तो पुत्र रूप में स्वयं परमब्रह्म को ही माँगना था, फिर ये कैसे उनसे यानी शंकर, ब्रह्मा और विष्णु से वर माँगते? हमारे प्रभु श्रीराम तो सर्वज्ञ हैं। वे भक्त के ह्रदय की अभिलाषा को स्वत: ही जान लेते हैं। जब २३ हजार वर्ष और बीत गये तो प्रभु श्रीराम के द्वारा आकाशवाणी होती है-

प्रभु सर्वग्य दास निज जानी,गति अनन्य तापस नृप रानी।
माँगु माँगु बरु भइ नभ बानी,परम गँभीर कृपामृत सानी॥

इस आकाशवाणी को जब मनु सतरूपा सुनते हैं तो उनका ह्रदय प्रफुल्लित हो उठता है और जब स्वयं परमब्रह्म राम प्रकट होते हैं तो उनकी स्तुति करते हुए मनु और सतरूपा कहते हैं- "सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू, बिधि हरि हर बंदित पद रेनू। सेवत सुलभ सकल सुखदायक, प्रणतपाल सचराचर नायक॥" अर्थात् जिनके चरणों की वन्दना विधि, हरि और हर यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही करते है, तथा जिनके स्वरूप की प्रशंसा सगुण और निर्गुण दोनों करते हैं: उनसे वे क्या वर माँगें? इस बात का उल्लेख करके तुलसीदास ने उन लोगों को भी राम की ही आराधना करने की सलाह दी है जो केवल निराकार को ही परमब्रह्म मानते हैं।

अध्याय

१.बालकाण्ड
२.अयोध्याकाण्ड
३.अरण्यकाण्ड
४.किष्किन्धाकाण्ड
५.सुन्दरकाण्ड
६.लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड)
७.उत्तरकाण्ड

भाषा-शैली

रामचरितमानस की भाषा के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधी मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं। मानस की भाषा बुंदेली मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है।

गोस्वामी जी ने भाषा को नया स्वरूप दिया। यह अवधी नहीं अपितु वही भाषा थी जो प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश होते हुए, १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही थी, जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी।

तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे परन्तु वे जायसी की गँवारू भाषा अवधी के पक्षधर नहीं थे। तुलसीदास की तुलना में जायसी की अवधी अधिक शुद्ध है। स्वयं गोस्वामी जी के अन्य अनेक ग्रन्थ जैसे ‘पार्वतीमंगल’ तथा 'जानकीमंगल’ अच्छी अवधी में है। गोस्वामी जी संस्कृत के भी विद्वान् थे, इसलिए संस्कृत व आधुनिक शुद्ध हिन्दी खड़ीबोली का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप में हुआ है।

चित्रकूट स्थित अन्तरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य ने रामचरितमानस का सम्पादन किया है। स्वामी जी ने लिखा है कि रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। स्वामीजी अनुनासिकों को विभक्ति को द्योतक मानने को भी असंगत बताते हैं- 'जब तें राम ब्याहि घर आये'। कुछ अपवादों को छोड़कर अनावश्यक उकारान्त कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग को स्वामी रामभद्राचार्य ने अवधी भाषा के विरुद्ध बताया है। स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रजभाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अवधी में नहीं होते | इसी प्रकार 'श' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की।
20:16

जाने कृष्णा मुरारी की 64 कलाएं-के सी शर्मा

जाने कृष्णा मुरारी की 64 कलाएं-के सी शर्मा

 


श्री कृष्ण अपनी शिक्षा ग्रहण करने आवंतिपुर (उज्जैन) गुरु सांदीपनि के आश्रम में गए थे जहाँ वो मात्र 64 दिन रह थे। वहां पर उन्होंने ने मात्र 64 दिनों में ही अपने गुरु से 64 कलाओं की शिक्षा हासिल कर ली थी। हालांकि श्री कृष्ण भगवान के अवतार थे और यह कलाएं उन को पहले से ही आती थी। पर उनका जन्म एक साधारण मनुष्य के रूप में हुआ था इसलिए उन्होंने गुरु के पास जाकर यह पुनः सीखी।

निम्न 64 कलाओं में पारंगत थे श्रीकृष्ण

1- नृत्य – नाचना
2- वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना
3- गायन विद्या – गायकी।
4- नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय
5- इंद्रजाल- जादूगरी
6- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
7- सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना
8- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
9- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या
10- बच्चों के खेल
11- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
12- मन्त्रविद्या
13- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
14- रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना
15- कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना
16- सांकेतिक भाषा बनाना
17- जल को बांधना।
18- बेल-बूटे बनाना
19- चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना)
20- फूलों की सेज बनाना।
21- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना – इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं।
22- वृक्षों की चिकित्सा
23- भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
24- उच्चाटन की विधि
25- घर आदि बनाने की कारीगरी
26- गलीचे, दरी आदि बनाना
27- बढ़ई की कारीगरी
28- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।
29- तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला।
30- हाथ की फूर्ती के काम
31- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
32- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
33- द्यू्त क्रीड़ा
34- समस्त छन्दों का ज्ञान
35- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
36- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
37- कपड़े और गहने बनाना
38- हार-माला आदि बनाना
39- विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए।
40-कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना – स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना।
41- कठपुतली बनाना, नाचना
42- प्रतिमा आदि बनाना
43- पहेलियां बूझना
44- सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना।
45 – बालों की सफाई का कौशल
46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
47- कई देशों की भाषा का ज्ञान
48 – मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना – ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके।
49 – सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
50 – सोना-चांदी आदि बना लेना
51 – मणियों के रंग को पहचानना
52- खानों की पहचान
53- चित्रकारी
54- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
55- शय्या-रचना
56- मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना।
57- कूटनीति
58- ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई
59- नई-नई बातें निकालना
60- समस्यापूर्ति करना
61- समस्त कोशों का ज्ञान
62- मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना।
63-छल से काम निकालना
64- कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
20:12

जानिए कौन है पंडित और ब्राम्हण के सी शर्मा


जानिए कौन है पंडित और ब्राम्हण के सी शर्मा

हम सभी ब्राह्मणों को अक्सर पण्डित जी, गुरु जी, आचार्य जी, ब्राह्मण देवता आदि तरह तरह के नामों से संबोधित करते हैं। पर क्या आपने कभी इन नामों के पीछे जो अर्थ है उसको जानने की कोशिश की है? नहीं की होगी क्योंकि नाम में क्या रखा है यही सबकी सोच है। लेकिन मैंने एक छोटा सा प्रयास किया है इन नामों के बारे में जानने के लिए जो आपके सन्मुख उपस्थित कर रहा हूँ। पहले शुरू करते है गुरु से क्योंकि गुरु ही प्रथम है –

गुरु

गु का अर्थ अंधकार और रु का अर्थ प्रकाश। अर्थात जो व्यक्ति आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु होता है। गुरु का अर्थ अंधकार का नाश करने वाला। अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है। गुरु आत्म विकास और परमात्मा की बात करता है। प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है। केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है। गुरु का अर्थ ब्रह्म ज्ञान का मार्गदर्शक।

रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरू की महिमा का व्याख्यान करते हुए लिखा है 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउं राम चरित भव मोचन॥1॥
 
भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूं॥1॥

आचार्य

आचार्य उसे कहते हैं जिसे वेदों और शास्त्रों का ज्ञान हो और जो गुरुकुल में ‍विद्यार्थियों को शिक्षा देने का कार्य करता हो। आचार्य का अर्थ यह कि जो आचार, नियमों और सिद्धातों आदि का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो। वह जो कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो उसे भी आचार्य कहा जाता था। आजकल आचार्य किसी महाविद्यालय के प्रधान अधिकारी और अध्यापक को कहा जाता है।

पुरोहित

पुरोहित दो शब्दों से बना है:- ‘पर’ तथा ‘हित’, अर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे। प्राचीन काल में आश्रम प्रमुख को पुरोहित कहते थे जहां शिक्षा दी जाती थी। हालांकि यज्ञ कर्म करने वाले मुख्‍य व्यक्ति को भी पुरोहित कहा जाता था। यह पुरोहित सभी तरह के संस्कार कराने के लिए भी नियुक्त होता है। प्रचीनकाल में किसी राजघराने से भी पुरोहित संबंधित होते थे। अर्थात राज दरबार में पुरोहित नियुक्त होते थे, जो धर्म-कर्म का कार्य देखने के साथ ही सलाहकार समीति में शामिल रहते थे।

पुजारी

पूजा और पाठ से संबंधित इस शब्द का अर्थ स्वत: ही प्रकाट होता है। अर्थात जो मंदिर या अन्य किसी स्थान पर पूजा पाठ करता हो वह पुजारी। किसी देवी-देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करने वाले व्यक्ति को पुजारी कहा जाता है।

पण्डित
पंडः का अर्थ होता है विद्वता। किसी विशेष ज्ञान में पारंगत होने को ही पांडित्य कहते हैं। पण्डित का अर्थ होता है किसी ज्ञान विशेष में दश या कुशल। इसे विद्वान या निपुण भी कह सकते हैं। किसी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाला ही पण्डित होता है। प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि के बहुत बड़े ज्ञाता को पण्डित कहा जाता था। इस पण्डित को ही पाण्डेय, पाण्डे, पण्ड्या कहते हैं। आजकल पण्डित नाम ब्रह्मणों का उपनाम भी बन गया है। कश्मीर के ब्राह्मणों को तो कश्मीरी पण्डित के नाम से ही जाना जाता है। पंडित की पत्नी को देशी भाषा में पंडिताइन कहने का चलन है।

ब्राह्मण

ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है। जो ब्रह्म यानि ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई कर अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं होता, ज्योतिषी होता है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस प्रकार वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कोई भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं। स्मृतिपुराणों में ब्राह्मण के आठ भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। आठ प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है जिसका किसी जाति या समाज से कोई संबंध नहीं होता है।
20:03

जानिए चाणक्य नीती-के सी शर्मा के साथ




चाणक्य के समय विदेशी हमला हुआ था। चाणक्य का संपूर्ण जीवन ही कूटनीति, छलनीति, युद्ध नीति और राष्ट्र की रक्षा नीति से भरा हुआ है। चाणक्य अपने जीवन में हर समय षड्यंत्र को असफल करते रहे और अंत में उन्होंने वह हासिल कर लिया, जो वे चाहते थे। चाणक्य की युद्ध और सैन्य नीति बहुत प्रचलित है। उन्हीं में से हम यहां कुछ सूत्र ढूंढकर लाए हैं जिन्हें संक्षिप्त और सरल भाषा में लिखा है।

-ऋण, शत्रु और रोग को समय रहते ही समाप्त कर देना चाहिए। जब तक शरीर स्वस्थ और आपके नियंत्रण में है, उस समय आत्मसाक्षात्कार के लिए उपाय अवश्य ही कर लेना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के पश्चात कोई कुछ भी नहीं कर सकता।
 
-बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है। हाथी और पैदल सेना का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। उसमें पैदल सेना के ही कुचले जाने की आशंका रहती है। अत: युद्ध बराबरी वालों से ही करना चाहिए।...युद्ध के सही समय का इंतजार करना ही उचित है।
 
-राजा शक्तिशाली होना चाहिए, तभी राष्ट्र उन्नति करता है। राजा की शक्ति के 3 प्रमुख स्रोत हैं- मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक। मानसिक शक्ति उसे सही निर्णय के लिए प्रेरित करती है, शारीरिक शक्ति युद्ध में वरीयता प्रदान करती है और आध्यात्मिक शक्ति उसे ऊर्जा देती है, प्रजाहित में काम करने की प्रेरणा देती है। कमजोर और विलासी प्रवृत्ति के राजा शक्तिशाली राजा से डरते हैं।
 
-कूटनीति के 4 प्रमुख अस्त्र हैं जिनका प्रयोग राजा को समय और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना चाहिए- साम, दाम, दंड और भेद। जब मित्रता दिखाने (साम) की आवश्यकता हो तो आकर्षक उपहार, आतिथ्य, समरसता और संबंध बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए जिससे दूसरे पक्ष में विश्वास पैदा हो। ताकत का इस्तेमाल, दुश्मन के घर में आग लगाने की योजना, उसकी सेना और अधिकारियों में फूट डालना, उसके करीबी रिश्तेदारों और उच्च पदों पर स्थित कुछ लोगों को प्रलोभन देकर अपनी ओर खींचना कूटनीति के अंग हैं।
 
-विदेश नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्र का हित सबसे ऊपर हो, देश शक्तिशाली हो, उसकी सीमाएं और साधन बढ़ें, शत्रु कमजोर हो और प्रजा की भलाई हो। ऐसी नीति के 6 प्रमुख अंग हैं- संधि (समझौता), समन्वय (मित्रता), द्वैदीभाव (दुहरी नीति), आसन (ठहराव), यान (युद्ध की तैयारी) एवं विग्रह (कूटनीतिक युद्ध)। युद्धभूमि में लड़ाई अंतिम स्थिति है जिसका निर्णय अपनी और शत्रु की शक्ति को तौलकर ही करनी चाहिए। देशहित में संधि तोड़ देना भी विदेश नीति का हिस्सा होता है।
 
-शत्रु को कभी भी कमजोर मत समझो। शत्रु चाहे कैसा भी और कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, पर उसे अपने विवेक का इस्तेमाल करके हराया जा सकता है। शत्रु के मित्र को अपना मित्र बना लो ताकि वो आपको हानि न पहुंचा पाए और उसके शत्रु को भी अपना मित्र बना लो ताकि हमारे किए हुए वार की ताकत दोगुनी हो जाए।
 
-अपनी नीति तो अपनाओ, लेकिन शत्रु की युद्ध नीति को समझना भी उतना ही जरूरी है। युद्ध में अपने शत्रु की तरह सोचना भी जरूरी है। जो भी नीति हो, उसे गुप्त रखो। उसे सिर्फ अपने कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों को बताओ। अच्छे के लिए सोचो, लेकिन बुरे से बुरे के लिए भी तैयार रहो।
 
-शत्रु को जहां से भी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्ति प्राप्त हो रही है, उस स्रोत को शत्रु तक पहुंचने से पहले ही मिटा दो। सही समय का इंतजार करो। जब शत्रु पूरी तरह से कमजोर हो तब उस पर (उसके शत्रु, जो कि अब आपका मित्र है) मिलकर आक्रमण कर दो। इस तरह के हमले के बाद शत्रु पूरी तरह से अचंभित हो जाएगा और आपसे बदला लेने में भी सक्षम नहीं होगा।
 
-12 प्रकार के राजाओं के घेरे को राज प्रकृति का नाम दिया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राजा के अपने घेरे होते हैं। हर घेरे में 5 तत्व की मान्यता है- अमात्य (मंत्री), जनपद (देश), दुर्ग (किला) और कोश (खजाना)। प्रत्येक राजा के 5 तत्वों को मिलाकर कुल 60 तत्व होते हैं जिसे द्रव्य प्रकृति का नाम दिया गया है। 12 राजा और 60 तत्वों को मिलाकर कुल 72 तत्व बनते हैं, जो मंडल (राजाओं के घेरे) को पूरा करते हैं। विजिगीषु को युद्ध या शांति का निर्णय अपनी और शत्रु की ताकत का सही अंदाज लेकर करना चाहिए। यदि युद्ध से लाभ नजर नहीं आता तो शांति लाभदायक है। अपने दुश्मन से अधिक ताकतवर राजा के साथ संधि लाभप्रद होती है। इसके लिए ताकतवर राजा से अच्छे संबंध रखने के लिए हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए।

-विजिगीषु (विजय की आकांक्षा रखने वाला) के शत्रु 2 प्रकार के होते हैं। एक तो स्वाभाविक शत्रु होता है, जो बराबर का ताकतवर है और जिसकी सीमाएं देश से लगी हुई हैं। दूसरा काल्पनिक शत्रु है, जो इतना ताकतवर नहीं है कि युद्ध करके जीत जाए किंतु दुश्मनी का भाव रखता है। शत्रुओं से मित्रता। की कोशिश करता है। कुछ राजाओं से मित्रता विशेष कारणों से की जा सकती है जिससे अपने देश का लाभ हो या व्यापार और सैन्य शक्ति बढ़ाने में कुछ पड़ोसी राज्य ऐसे भी हो सकते हैं जिनके सर पर शत्रुओं की तलवार लटकती रहती है। जो कमजोर हैं, उन्हें वसल की संज्ञा दी गई है।
 
इस तरह हमने देखा की चाणक्य के युद्ध, सैन्य और कूटनीति के क्या विचार थे। हालांकि यह बहुत ही संक्षिप्त में यहां लिखा गया है। इसके विस्तार में जाने से और भी कई तरह के रहस्य खुलते हैं। आज भी चाणक्य की नीति प्रासंगिक है।

Wednesday, 10 June 2020

17:25

जीवन के बहाव में ऐसा बहो की अंत तक पहेली बनी रहे- के सी शर्मा

हकीकत का आईंना
जीवन के बहाव में ऐसा बहो की अंत तक पहेली बनी रहे- के सी शर्मा

एक समय की बात है गंगा नदी के किनारे पीपल का एक पेड़ था.
पहाड़ों से उतरती गंगा पूरे वेग से बह रही थी कि अचानक पेड़ से दो पत्ते नदी में आ गिरे। एक पत्ता आड़ा गिरा और एक सीधा।
जो आड़ा गिरा वह अड़ गया, कहने लगा, “आज चाहे जो हो जाए मैं इस नदी को रोक कर ही रहूँगा… चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए मैं इसे आगे नहीं बढ़ने दूंगा.”
वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा – रुक जा गंगा…. अब तू और आगे नहीं बढ़ सकती… मैं तुझे यहीं रोक दूंगा !
पर नदी तो बढ़ती ही जा रही थी… उसे तो पता भी नहीं था कि कोई पत्ता उसे रोकने की कोशिश कर रहा है.
पर पत्ते की तो जान पर बन आई थी.. वो लगातार संघर्ष कर रहा था… नहीं जानता था कि बिना लड़े भी वहीँ पहुंचेगा जहाँ लड़कर थककर हारकर पहुंचेगा !
पर अब और तब के बीच का समय उसकी पीड़ा का…. उसके संताप का काल बन जाएगा।
वहीँ दूसरा पत्ता जो सीधा गिरा था, वह तो नदी के प्रवाह के साथ ही बड़े मजे से बहता चला जा रहा था।
यह कहता हुआ कि “चल गंगा, आज मैं तुझे तेरे गंतव्य तक पहुंचा के ही दम लूँगा…
चाहे जो हो जाए मैं तेरे मार्ग में कोई अवरोध नहीं आने दूंगा. तुझे सागर तक पहुंचा ही दूंगा।
नदी को इस पत्ते का भी कुछ पता नहीं… वह तो अपनी ही धुन में सागर की ओर बढती जा रही है.
पर पत्ता तो आनंदित है, वह तो यही समझ रहा है कि वही नदी को अपने साथ बहाए ले जा रहा है.
आड़े पत्ते की तरह सीधा पत्ता भी नहीं जानता था कि चाहे वो नदी का साथ दे या नहीं, नदी तो वहीं पहुंचेगी जहाँ उसे पहुंचना है !
पर अब और तब के बीच का समय उसके सुख का…. उसके आनंद का काल बन जाएगा।
जो पत्ता नदी से लड़ रहा है… उसे रोक रहा है, उसकी जीत का कोई उपाय संभव नहीं है..
और जो पत्ता नदी को बहाए जा रहा है उसकी हार को कोई उपाय संभव नहीं है।
जीवन भी उस नदी के सामान है और जिसमे सुख और दुःख की तेज़ धारायें बहती रहती हैं...
और जो कोई जीवन की इस धारा को आड़े पत्ते की तरह रोकना का प्रयास भी करता है तो वह मुर्ख है..
क्योंकि ना तो कभी जीवन किसी के लिये रुका है और ना ही रुक सकता है ।
वह अज्ञान में है जो आड़े पत्ते की तरह जीवन की इस बहती नदी में सुख की धारा को ठहराने या दुःख की धारा को जल्दी बहाने की मूर्खता पूर्ण कोशिश करता है ।
क्योंकि सुख की धारा जितने दिन बहनी है उतने दिन तक ही बहेगी आप उसे बढ़ा नही सकते,
और अगर आपके जीवन में दुख का बहाव जितने समय तक के लिए आना है वो आ कर ही रहेगा, फिर क्यों आड़े पत्ते की तरह इसे रोकने की फिजूल मेहनत करना।
बल्कि जीवन में आने वाले हर अच्छी बुरी परिस्थितियों में खुश हो कर जीवन की बहती धारा के साथ उस सीधे पत्ते की तरह ऐसे चलते जाओ जैसे जीवन आपको नही बल्कि आप जीवन को चला रहे हो ।
सीधे पत्ते की तरह सुख और दुःख में समता और आनन्दित होकर जीवन की धारा में मौज से बहते जाएँ।
और जब जीवन में ऐसी सहजता से चलना सीख गए तो फिर सुख क्या ? और दुःख क्या ?
जीवन के बहाव में ऐसे ना बहो कि थक कर हार भी जाओ और अंत तक जीवन आपके लिए एक पहेली बन जाये,
बल्कि जीवन के बहाव को हँस कर ऐसे बहाते जाओ की अंत तक आप जीवन के लिए पहेली बन जायें..!

Tuesday, 2 June 2020

12:07

जानिए गुरुजनों से प्राप्त शिक्षाओ के आधार पर जन्मना ब्राह्मण के कर्तव्य- के सी शर्मा

जानिए गुरुजनों से प्राप्त शिक्षाओ के आधार पर जन्मना ब्राह्मण के कर्तव्य- के सी शर्मा


1. जन्मना ब्राह्मणों को कभी भी, किसी से भी, कोई भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जब से जन्मना ब्राह्मणों ने अपेक्षा करना शुरू किया है तभी से समस्या है। 
जन्मना ब्राह्मण को तो निस्पृह भाव से स्वयं को समाज के दंद-फंद से दूर रखकर अपनी आजीविका की व्यवस्था और रामभजन करना चाहिए।

2. आजीविका चयन में जन्मना ब्राह्मणों को प्रयास यही करना चाहिए कि आजीविका का साधन ऐसा हो जिसमें हिंसा और पराश्रयता कम से कम और धर्म, संपूर्ण समाज और राष्ट्र सबकी सेवा अधिक से अधिक हो सके।

3. संग्रह अत्यावश्यक है अतः जन्मना ब्राह्मणों को ज्ञान और ग्रन्थों के संग्रह को प्रथम वरीयता देना चाहिए और वस्तुओं तथा धन का भी उतना संग्रह अवश्य करना चाहिए जिससे परिवार का काम चलता रहे और समाज में भी औसत सम्मानजनक स्थिति बनी रहे। ज्ञान और साहित्य संग्रह में ब्राह्मणों को जितना अधिक हो सके लोभ करना चाहिए और धन के विषय में अधिकतम सन्तोषी होना चाहिये।

4. जन्मना ब्राह्मणों को स्वाभिमानी, मितव्ययी, विनम्र और दिखावे से दूर रहना चाहिए। यथासंभव स्वावलंबी और सादगी पूर्ण जीवन जीना चाहिए। सप्रयास ऐसे व्यसनों से बचना चाहिए जो समाज पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।

5. ब्राह्मण को अभिवादन शील होना चाहिए। प्रयास पूर्वक पहले अभिवादन स्वयं ब्राह्मण करें और यदि अन्य व्यक्ति द्वारा जन्मना ब्राह्मण को अभिवादन किया जाए तो समुचित सम्मान प्रकट करते हुए विनम्रता पूर्वक अपने इष्टदेव को बारम्बार सपष्ट उच्चारण पूर्वक स्मरण करें।
यदि कोई किसी भी रूप में सम्मान दर्शाए भी तो उसके सम्मान के प्रतिउत्तर में हाथ जोड़कर शिर झुकाकर अपने इष्टदेव के नाम की जोर जोर से जयकार करनी चाहिए। किंतु कोई आपका सम्मान करें ऐसी अपेक्षा करने पर ब्राह्मणों के संचित पुण्य नष्ट होने लगते हैं।

6. जन्मना ब्राह्मणों को मनोरंजन के नाम पर की जाने वाली कोई भी फ़ूहड़ हरकतों से सदा दूर रहना आवश्यक है। हो सकता है कि तत्काल में किसी को बुरा लगे, इस स्थिति में भी क्षमा याचना पूर्वक उन कार्यक्रमों से हट जाना चाहिए जहां धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर फ़ूहड़ नाचकूद या हास्य होने की संभावना हो।

7. ब्राह्मण के वंश में जन्म का अर्थ यही है कि उस परब्रह्म परमात्मा ने आपको धर्म और राष्ट्र की सेवा के लिए भेजा है। सेवा का कार्य त्याग, समर्पण और सहनशीलता की अपेक्षा रखता है।

8. जन्मना ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक जड़-चेतन में ईश्वर को प्रकट मानकर सबके प्रति आदर रखें, आदर प्रकट करें।

9. जन्मना ब्राह्मणों को चाहिए कि धार्मिक और सामाजिक विषयों में सेवक धर्म का पालन करें और केवल योग्य व्यक्तियों द्वारा विधिपूर्वक पूछे गए प्रश्नों के युक्तियुक्त उत्तर शास्त्र प्रमाण सहित प्रस्तुत करें। जिन विषयों पर अधिकार नहीं है वहां अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित कर अपने असमर्थ होने हेतु क्षमा मांग लें। यदि ब्राह्मण प्रशासक या नियंता बनने का प्रयास करेंगे तो विवादित बनेंगे ही।

10. ब्राह्मण के लिए उचित है कि यदि धर्म या राष्ट्र की हानि की संभावना प्रतीत हो तो उचित क्रोध अवश्य प्रदर्शित करें। किंतु किसी के प्रति मन में वैर भाव न रखें।

11. ब्राह्मण को पिशुनवृत्ति (चुगलखोरी) किसी भी स्थिति में नहीं करनी चाहिए और कभी भी किसी के रहस्यों अथवा कमजोरियों को ज्ञात होने पर कहीं भी प्रकट नहीं करना चाहिए।

12. ब्राह्मण को सत्यवक्ता और स्पष्टवक्ता होना ही चाहिये किंतु सहसा नहीं बोलना चाहिए। उचित अवसर पर बोलने से पूर्व अच्छी तरह सोचविचार करके सीमित, उचित और अनुकूल शब्दों में अपनी बात रखनी चाहिए।

13. शास्त्रों, सन्तों, गुरुजनों, तीर्थों, स्त्रियों, वृद्धजन और गौमाता की निंदा कदापि नहीं करनी चाहिए, प्राणभय उपस्थित होने पर भी इनके प्रति अनुचित शब्दों की चिंतन तक नहीं करना चाहिए फिर कहने की तो बात ही क्या है।

गुरुदेव कहते हैं ब्राह्मण होना प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है, लेकिन इसे पाकर निभाना सरल काम नहीं।

मुझे स्वयं ये शिक्षाये अपने जीवन में देर से मिल पाई या संभवतः समझने में देर हुई, और अभी तक भी इन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर पाया। तथापि जितना कर पाया उतने में सुखी हूं। आगे प्रयास जारी हैं।

Monday, 1 June 2020

19:30

आखिर क्यों दुखी रहता है इंशान के सी शर्मा का विशेष लेख

आदमी इसलिए भी दुखी रहता है क्योंकि वो मकान, शहर, देश, वस्त्र, संबंध सब कुछ बदलता है मगर अपना स्वभाव नहीं बदल पाता। और सच कहें तो स्वभाव से ही आदमी सुखी और दुखी बनता है।

वो स्वभाव ही तो था जब भरी सभा में दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण को दूत कहकर संबोधित करते हुए बंदी बनाने का आदेश दे डाला। शिशुपाल उन्हीं श्रीकृष्ण कि अग्रपूजा का विरोध करते हुए उनका उपहास करने लगा मगर अपमान और उपहास की इन घड़ियों में भी वो द्वारिकाधीश अपनी मंद - मंद मुस्कुराहट बिखेरते रहे।

सत्य कहा गया है कि व्यक्ति में सुंदरता की कमी हो तो अच्छे स्वभाव से पूरी की जा सकती है मगर अच्छे स्वभाव की कमी हो तो सुंदरता से उसकी पूर्ति कभी नहीं की जा सकती है। चेहरे की सुंदरता तो प्रकृत्ति पर निर्भर होती है मगर स्वभाव की सुंदरता आपकी प्रवृत्ति पर निर्भर करती है। चेहरे की सुंदरता जहाँ केवल आँखों में उतर पाती है, स्वभाव की सुंदरता वहीं दिल तक उतर जाती है।

अच्छा स्वभाव व्यक्ति को किसी के दिल में उतार देता है तो बुरा स्वभाव व्यक्ति को किसी के दिल से भी उतार देता है। इसलिए अपने स्वभाव को मृदु बनाओ ताकि आपका पूरा जीवन मधुरता से भर सके।

Monday, 4 May 2020

05:25

समाजसेवा का जज्बा केसी शर्मा की कलम से



हकीकत का आईंना के सी शर्मा की रिपोर्ट
कभी कभी कुछ लोग ऐसा काम कर देते है की दिल जबरदस्ती हाथो को कलम उठाने पर मजबूर कर देता है ।

नीचे जो तस्वीर आप देख रहे ये तस्वीर ना ही किसी नेता की है ना ही किसी अभिनेता की और ना ही किसी उद्योगपति की
ये तस्वीर है एक सच्चे इंसान की जिसने इस लॉक डाउन के पीरियड में ये साबित कर दिया की सेवा के लिए धन से अधिक नियत को आवश्यकता होती है
संक्षिप्त रूप से परिचय इस प्रकार है इनका नाम है पंडित रामनरेश शर्मा मूल रूप से बागपत जिले के रहने वाले है लेकिन फिलहाल परिवार के साथ गाज़ियाबाद में रहकर गुजर बसर करतें है व्यवसाय के नाम पर एक छोटी सी किराना की दूकान है और एक मकान जिसे किराये पर उठा रखा है पंडित जी ने
जबसे लॉक डाउन का सिलसिला चला है पंडित जी ने अपनी किराना की दूकान के दरवाजे जनसेवा में खोल दिये है खरीद मूल्य पर ही बिक्री करतें है किसी भी वस्तु पर कोई अन्यथा लाभ नहीं लेते बल्कि जिस दौर में बाकी बड़े किराना व्यवसायी लूटम लूट मचाये बैठे है ऐसे में पंडित जी अपनी दूकान पर अपने ग्राहको को भरपूर उधार सामान दें रहे है बिना किसी शर्त के
इसके साथ साथ इन्होने अपना जो मकान किराये पर उठा रखा है उसमे लगभग चार परिवार रहते है जहां बाकी मकान मालिक जबरन किराया वसूल रहे है वही पंडित जी उसके उल्ट किराया वसूलना तो दूर की बात बल्कि उन परिवारों का भरण पोषण भी अपने निजी खर्च से कर रहे है साथ में 24 घंटे हर प्रकार की मदद को खड़े रहते है
और लोक डाउन में ये एक और ऐसा काम कर रहे जिसकी वजह से ये क्षेत्र में चर्चा का विषय बने हुये है लॉक डाउन के पीरियड में जब भी पुलिस इनकी गली से गस्त करती है तब तब ये उसका स्वागत फूल बरसाकर करते है उन्हें रोक कर उनका सम्मान करते है ये सिलसिला पिछले एक डेढ़ महीने से चल रहा है लेखों किसी अखबार किसी मीडिया कर्मी ने इनके विषय में लिखना जरूरी नहीं समझा अंततः मजबूर होकर मुझे ही लिखना पड़ा
जो लोग समाज को जात धर्म के पलड़े में तौलते है उन्हें पंडित जी से सीख लेनी चाहिए एक कर्मकांडी ब्राह्मण अपने धर्म का पालन आपातकाल की स्थित में बगैर किसी स्वार्थ के कर रहा है समाज की भी जिम्मेदारी बनती है की ऐसे लोगो को अपने अपने माध्यम से सम्मानित करतें है वरना जिस दौर में धर्म का व्यापर होता है वहां धर्म से व्यापर कौन करता है
05:03

क्रांतिकारी वीर "बिरजु" नायक के शहादत दिवस पर विशेष- के सी शर्मा*



*जनजाति क्रांतिकारी शहीद वीर बिरजू नायक की जीवनी:-*

कर्मभूमि~सिंधीघाटी(चिंदीघाटी)क्षेत्र ,राजपुर, जिला बड़वानी
जन्मभूमि~ वर्तमान का ग्राम सावरदा-मटली
समाधिस्थल~ग्राम उपला
कर्मघर~बांडी हवेली
शहादतदिवस~ 2 मई
योगदान- 1857 की क्रांति के दौर में अंग्रेजो के खिलाफ आदिवासीयो के अम्बापानी विद्रोह,सेंधवा विद्रोह जैसे कई विद्रोह में अहम योगदान



*कौन है बिरजू*.....

 सन 1857 की क्रान्ति के दौर के वीर  क्रांतिकारी, एक महान योद्धा, सतपुड़ा की सुदूर पहाड़ियों में रहने वाले निमाड़ के आदिवासी वीर योद्धा रहे बिरजू नायक जिनकी कहानी से बहुत ही कम लोग वाकिफ है, अंग्रेज शासनकाल मे कई क्रांतिकारी योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। उनमे से कई वीर एसे भी है जिनका जिक्र इतिहास में एक लाइन से ज्यादा नहीं किया गया है।एसे ही आदिवासी वीर योद्धा रहे बिरजू नायक, जिनका शहीदी दिवस 2 मई है।

मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले की राजपुर तहसील के नगर पलसूद के निकट ग्राम मटली एवं सावरदा के बीच स्थित एक पहाड़ी पर स्थित क्षेत्र की प्रशिद्ध "बांडी हवेली" है जो वीर बिरजू नायक का कर्मघर है, जो आज भी मौजूद है हालांकि वह अब खंडहर में तब्दील हो चूका है, जिसको संरक्षित करने की आवश्यकता है।

 स्थानीय सगाजनो/समाजजनो से प्राप्त जानकारी अनुसार ऐसी मान्यता है कि वीर बिरजू नायक इसी बांडी हवेली से अपने साथियों के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध अपनी योजनाए बनाकर उन्हें अंजाम देते थे। वही पलसूद के नजदीक ग्राम उपला में इनका समाधिस्थल है, जहा वर्तमान में भी क्षेत्र के समाजजन/सगाजन पहुचकर वीर योद्धा को श्रद्धांजलि सुमन अर्पित करते है, वही समस्त मूलनिवासी संगठनों द्वारा प्रतिवर्ष 2 मई को वीर बिरजू नायक का शहीदी दिवस भी मनाया जाता है।

हमारे पूर्वजो एंव वरिष्टमहानुभवों से प्राप्त जानकारी अनुसार बिरजू नायक हमेशा गरीब व किसान के हितों के लिए लड़ते थे ।वीर योद्धा भीमा नायक , खज्या नायक और टंट्या मामा भील के साथ कई विद्रोह में  सहभागिता की । वे अक्सर अंग्रेजो को लूटकर सामग्री गरीबों में बाट दिया करते थे । उन्होंने अंग्रेजों से कई लड़ाई लड़कर उन्हें धूल चटा दी थी, कहा जाता है कि जब भी गांव में अंग्रेज आते थे अंग्रेजों को गांव से मारकर भागने पर मजबूर कर देते थे ।

उलेखनीय है कि स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के पश्चिम निमाड़ के आगमन पर राजपुर क्षेत्र के गुप्त रास्तो से नर्मदा नदी पार करवा कर मंजिल तक पहुचाने में भीमा नायक, खाज्या नायक एवं बिरजू नायक तथा साथियो का अहम योगदान था , इसी योगदान के बदले उन्हें "वीर की उपाधि" दी गई थी। जिससे पता चलता है कि सिंधी घाटी क्षेत्र में वीर के नाम से चर्चित थे, आज भी उनके नाम के आगे लोग वीर लिखना नही भूलते है।  निवाली से (सिंधी घाटी)राजपुर तक उनका गढ़ रहा है। ग्राम मटली में स्थित झरने (कुंडी) पर नहाने जाया करते थे, उन्हें धोखे के तहत रणनीति बनाकर मारने के लिए अंग्रेजों ने करीबी साथी का सहारा लिया, क्योंकि बिरजू नायक को मारना आसान नहीं था अंग्रेजों ने उन्हें मारने के लिए कई प्रयास किए पर असफल रहे । वे युद्ध कला में निपुण थे, बिरजू नायक प्रतिदिन की तरह एक बार झरने (कुण्डी) पर नहाने पहुचे थे तभी अंग्रेजो द्वारा भेजे गए किसी परिचित ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया। ऐसा बताया जाता है कि सर धड़ से अलग होने के बावजूद वे उपला स्थित समाधी स्थल तक दौड़ते हुए आ गए थे व उक्त स्थल पर प्राण त्यागे थे।आदिवासी समाज एवं विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता वर्तमान में भी उनकी गाथा का गायन करते है।

 "यहाँ से साथियो से करते थे सूचनाओ का आदान प्रदान।"

कहा जाता है कि वीर बिरजू नायक अपने साथियों को सुचना देने हेतु वाद्य यंत्र का उपयोग करते थे। जिस स्थान से सूचनाओं का आदान प्रदान करते थे उस स्थान को अब ढोला बैड़ी के नाम से जाना जाता है, जो कि ग्राम मटली में स्थित है।

सुदूर पहाड़ियों एंव सिंधीघाटी क्षेत्र से अंग्रेजशासनकाल में अंग्रेजो के खिलाफ हक-अधिकार ,शोषित-पीड़ित, दबे -कुचले लोगो के लिए बुलन्द आवाज करने वाले निमाड़ के शेर जनजाति  क्रांतिकारी शहीद वीर बिरजू नायक के शहादत दिवस पर उन्हें शत शत नमन करता हु..