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सोमवार, 4 मई 2020

5:39 pm

4 मई सोमवार जानिए मोहनी एकादसी पर विशेष-के सी शर्मा




धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे कृष्ण! वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी कथा क्या है? इस व्रत की क्या विधि है, यह सब विस्तारपूर्वक बताइए।

श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे धर्मराज! मैं आपसे एक कथा कहता हूँ, जिसे महर्षि वशिष्ठ ने श्री रामचंद्रजी से कही थी। एक समय श्रीराम बोले कि हे गुरुदेव! कोई ऐसा व्रत बताइए, जिससे समस्त पाप और दु:ख का नाश हो जाए। मैंने सीताजी के वियोग में बहुत दु:ख भोगे हैं।

महर्षि वशिष्ठ बोले- हे राम! आपने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। आपकी बुद्धि अत्यंत शुद्ध तथा पवित्र है। यद्यपि आपका नाम स्मरण करने से मनुष्य पवित्र और शुद्ध हो जाता है तो भी लोकहित में यह प्रश्न अच्छा है। वैशाख मास में जो एकादशी आती है उसका नाम मोहिनी एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य सब पापों तथा दु:खों से छूटकर मोहजाल से मुक्त हो जाता है। मैं इसकी कथा कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।

सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नाम की एक नगरी में द्युतिमान नामक चंद्रवंशी राजा राज करता था। वहाँ धन-धान्य से संपन्न व पुण्यवान धनपाल नामक वैश्य भी रहता है। वह अत्यंत धर्मालु और विष्णु भक्त था। उसने नगर में अनेक भोजनालय, प्याऊ, कुएँ, सरोवर, धर्मशाला आदि बनवाए थे। सड़कों पर आम, जामुन, नीम आदि के अनेक वृक्ष भी लगवाए थे। उसके 5 पुत्र थे- सुमना, सद्‍बुद्धि, मेधावी, सुकृति और धृष्टबुद्धि।

इनमें से पाँचवाँ पुत्र धृष्टबुद्धि महापापी था। वह पितर आदि को नहीं मानता था। वह वेश्या, दुराचारी मनुष्यों की संगति में रहकर जुआ खेलता और पर-स्त्री के साथ भोग-विलास करता तथा मद्य-मांस का सेवन करता था। इसी प्रकार अनेक कुकर्मों में वह पिता के धन को नष्ट करता रहता था।

इन्हीं कारणों से त्रस्त होकर पिता ने उसे घर से निकाल दिया था। घर से बाहर निकलने के बाद वह अपने गहने-कपड़े बेचकर अपना निर्वाह करने लगा। जब सबकुछ नष्ट हो गया तो वेश्या और दुराचारी साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया। अब वह भूख-प्यास से अति दु:खी रहने लगा। कोई सहारा न देख चोरी करना सीख गया।

एक बार वह पकड़ा गया तो वैश्य का पुत्र जानकर चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। मगर दूसरी बार फिर पकड़ में आ गया। राजाज्ञा से इस बार उसे कारागार में डाल दिया गया। कारागार में उसे अत्यंत दु:ख दिए गए। बाद में राजा ने उसे नगरी से निकल जाने का कहा।

वह नगरी से निकल वन में चला गया। वहाँ वन्य पशु-पक्षियों को मारकर खाने लगा। कुछ समय पश्चात वह बहेलिया बन गया और धनुष-बाण लेकर पशु-पक्षियों को मार-मारकर खाने लगा।

एक दिन भूख-प्यास से व्यथित होकर वह खाने की तलाश में घूमता हुआ कौडिन्य ऋषि के आश्रम में पहुँच गया। उस समय वैशाख मास था और ऋषि गंगा स्नान कर आ रहे थे। उनके भीगे वस्त्रों के छींटे उस पर पड़ने से उसे कुछ सद्‍बुद्धि प्राप्त हुई।

वह कौडिन्य मुनि से हाथ जोड़कर कहने लगा कि हे मुने! मैंने जीवन में बहुत पाप किए हैं। आप इन पापों से छूटने का कोई साधारण बिना धन का उपाय बताइए। उसके दीन वचन सुनकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम वैशाख शुक्ल की मोहिनी नामक एकादशी का व्रत करो। इससे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार व्रत किया।

हे राम! इस व्रत के प्रभाव से उसके सब पाप नष्ट हो गए और अंत में वह गरुड़ पर बैठकर विष्णुलोक को गया। इस व्रत से मोह आदि सब नष्ट हो जाते हैं। संसार में इस व्रत से श्रेष्ठ कोई व्रत नहीं है। इसके माहात्म्य को पढ़ने से अथवा सुनने से एक हजार गौदान का फल प्राप्त होता है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

11:43 pm

जानिए क्यों क्रूर है शनि देव की दृष्टि क्या शनि देव को दिया था उनकी पत्नी ने श्राप



*जानिए, शनि देव की दृष्टि क्यों है क्रूर - के सी शर्मा*


शनि देव को दिया था उनकी पत्नी ने श्राप, जानिए ऐसी है कथा।

शनि देव से मिलने के लिए उनकी पत्नी ने काफी इंतजार किया लेकिन वे भगवान कृष्ण की भक्ति में इतना रम गए थे कि उन्हें समय का आभास ही नहीं रहा। इतने में शनिदेव की पत्नी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था, इसके चलते उन्होंने शनिदेव को श्राप दिया कि आज से आप जिसे देखोगे वह नष्ट हो जाएगा।
ब्रम्हापुराण के अनुसार बचपन से ही शनिदेव भगवान कृष्ण के भक्त थे। बड़े होने के बाद इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से किया गया। इनकी पत्नी परम तेजस्विनी थीं। एक बार पुत्र-प्राप्ति की इच्छा लेकर वे अपने पति शनिदेव के पास पहुंची। लेकिन शनिदेव भगवान कृष्णा की भक्ति में लीन थे, ऐसे में पत्नी को गुस्सा आ गया और उन्होंने श्राप दे दिया।
जीवन में ग्रहों का प्रभाव बहुत प्रबल माना जाता है। ऐसे में शनि ग्रह अशांत हो जाए तो मनुष्य के जीवन में कष्टों का आगमन शुरू हो जाता है।

शनि भगवान सूर्य और छाया के पुत्र हैं। शनि को क्रूर दृष्टि का ग्रह कहा जाता है। यह किसी के भी जीवन में उथल-पुथल मचा सकते हैं। यह बात कम ही लोग जानते हैं।

तो बचना मुश्किल है। (how to please lord shani dev)
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार शनिदेव रोहिणी-शकट भेदन कर दें तो पृथ्वी पर 12 वर्ष का अकाल पड़ जाएगा, ऐसे में किसी भी प्राणी का बचना मुश्किल है।

interesting facts about shani dev

शनिदेव नहीं चाहते थे यह बात…( shani dev story in hindi)
श्राप के बाद ध्यान टूटा तो शनिदेव ने अपनी पत्नी को समझाया तो भूल का पश्चाताप हुआ। मगर एक बार बोले गए वचन वापस नहीं ले सकते हैं। उस दिन से शनिदेेव अपना सिर नीचा रखने लगे, वे स्वयं भी नहीं चाहते थे कि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।

शनिवार को होती है विशेष पूजा (shaniwar puja vidhi shubh muhurat)
शनिदेव की पूजा के लिए शनिवार विशेष दिन होता है। शनिदेव के किसी भी मंदिर में पूजा-अर्चना की जा सकती है। भगवान हर जगह विराजमान है। सच्चे मन से की गई पूजा शनिदेव जरूर स्वीकारते हैं।

 भक्तों को शनिदेव आशीर्वाद के रूप में सारे कष्ट हर लेते हैं। आशीष बताते हैं कि मैं हर शनिवार को शनि मंदिर जाता हंू। मैंने सच्च मन से शनिदेव की आराधना की। इसके बाद उन्होंने मेरी सारी परेशानियां हर ली।

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

4:32 pm

शिव की महिमा अपरंपार केसी शर्मा की कलम से




हिंदू मान्यताओं के अनुसार सोमवार का दिन भोलेनाथ का दिन माना जाता है। सप्ताह के सातों दिन किसी न किसी भगवान की पूजा की जाती है, माना जाता है कि शिवजी की भक्ति करने से वे जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं, उनकी भक्ति हर पल मानी जाती है। सच्चे मन से पूजा 9की जाए तो शिव अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं व उनकी हर मनोकामना जल्दी पूरी करते हैं। सोमवार को शिवजी की पूजा करना अधिक लाभदायक होता है।

सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत सोमेश्वर व्रत के नाम से जाना जाता है। इसके अपने धार्मिक महत्व होते हैं। इसी दिन चन्द्रमा की पूजा भी की जाती है। हमारे धर्मग्रंथों में सोमेश्वर शब्द के दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ है– सोम यानी चन्द्रमा। चन्द्रमा को ईश्वर मानकर उनकी पूजा और व्रत करना। सोमेश्वर शब्द का दूसरा अर्थ है- वह देव, जिसे सोमदेव ने भी अपना भगवान माना है। उस भगवान की सेवा-उपासना करना, और वह देवता हैं–भगवान शिव।


सोमवार व्रत के नियम :-

सोमवार का व्रत साधारणतय दिन के तीसरे पहर तक होता है|व्रत में फलाहार या पारण का कुछ खास नियम नहीं है|दिन रात में केवल एक समय भोजन करें|इस व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए|सोमवार के व्रत तीन प्रकार के है- साधारण प्रति सोमवार, सोम्य प्रदोष और सोलह सोमवार- विधि तीनों की एक जैसी होती है|शिव पूजन के बाद कथा सुननी चाहिए।


*सोमवार के दिन शिव पूजन का विधान :-*

पौराणिक मान्यता के अनुसार सोमवार के व्रत और पूजा से ही सोमदेव ने भगवान शिव की आराधना करना शुरु की थी। जिससे सोमदेव अपने सौंदर्य को पाया था। भगवान शंकर ने भी प्रसन्न होकर दूज यानी द्वितीया तिथि के चन्द्रमा को अपनी जटाओं में मुकुट की तरह धारण किया। यही कारण है कि बहुत से साधू-संत और धर्मावलंबी इस व्रत परंपरा में शिवजी की पूजा-अर्चना भी करते हैं। धार्मिक आस्था व परंपरा के चलते प्राचीन काल से ही सोमवार व्रत पर आज भी कई लोग भगवान शिव और पार्वती की पूजा करते आ रहे हैं। लेकिन यह चंद्र उपासना से ज्यादा भगवान शिव की उपासना के लिए प्रसिद्ध हो गया। भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा कर सुख और कामनापूर्ति होती है।


*सोमवार व्रत आरती!*

जय शिव ओंकारा जय शिव ओंकारा |
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अर्दाडी धारा |
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजे |
हंसानन गरुडासन बर्षवाहन साजै |
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अते सोहै |
तीनो रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहै |
अक्षयमाला वन माला मुंड माला धारी |
त्रिपुरारी कंसारी वर माला धारो |
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे |
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे।
कर मे श्रेष्ठ कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता
जग - कर्ता जग - हर्ता जग पालन कर्ता।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका
प्रणवाक्षर के मध्य ये तीनो एका |
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई गावे|
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे।भगवान का दिन है!शिव शंकर की पूजा के साथ इनकी भी करें पूजा, मिलेगा सर्वोत्तम लाभ--के सी शर्मा


हिंदू मान्यताओं के अनुसार सोमवार का दिन भोलेनाथ का दिन माना जाता है। सप्ताह के सातों दिन किसी न किसी भगवान की पूजा की जाती है, माना जाता है कि शिवजी की भक्ति करने से वे जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं, उनकी भक्ति हर पल मानी जाती है। सच्चे मन से पूजा की जाए तो शिव अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं व उनकी हर मनोकामना जल्दी पूरी करते हैं। सोमवार को शिवजी की पूजा करना अधिक लाभदायक होता है।

सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत सोमेश्वर व्रत के नाम से जाना जाता है। इसके अपने धार्मिक महत्व होते हैं। इसी दिन चन्द्रमा की पूजा भी की जाती है। हमारे धर्मग्रंथों में सोमेश्वर शब्द के दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ है– सोम यानी चन्द्रमा। चन्द्रमा को ईश्वर मानकर उनकी पूजा और व्रत करना। सोमेश्वर शब्द का दूसरा अर्थ है- वह देव, जिसे सोमदेव ने भी अपना भगवान माना है। उस भगवान की सेवा-उपासना करना, और वह देवता हैं–भगवान शिव।


सोमवार व्रत के नियम :-

सोमवार का व्रत साधारणतय दिन के तीसरे पहर तक होता है|व्रत में फलाहार या पारण का कुछ खास नियम नहीं है|दिन रात में केवल एक समय भोजन करें|इस व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए|सोमवार के व्रत तीन प्रकार के है- साधारण प्रति सोमवार, सोम्य प्रदोष और सोलह सोमवार- विधि तीनों की एक जैसी होती है|शिव पूजन के बाद कथा सुननी चाहिए।


*सोमवार के दिन शिव पूजन का विधान :-*

पौराणिक मान्यता के अनुसार सोमवार के व्रत और पूजा से ही सोमदेव ने भगवान शिव की आराधना करना शुरु की थी। जिससे सोमदेव अपने सौंदर्य को पाया था। भगवान शंकर ने भी प्रसन्न होकर दूज यानी द्वितीया तिथि के चन्द्रमा को अपनी जटाओं में मुकुट की तरह धारण किया। यही कारण है कि बहुत से साधू-संत और धर्मावलंबी इस व्रत परंपरा में शिवजी की पूजा-अर्चना भी करते हैं। धार्मिक आस्था व परंपरा के चलते प्राचीन काल से ही सोमवार व्रत पर आज भी कई लोग भगवान शिव और पार्वती की पूजा करते आ रहे हैं। लेकिन यह चंद्र उपासना से ज्यादा भगवान शिव की उपासना के लिए प्रसिद्ध हो गया। भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा कर सुख और कामनापूर्ति होती है।


सोमवार व्रत आरती

जय शिव ओंकारा जय शिव ओंकारा |
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अर्दाडी धारा |
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजे |
हंसानन गरुडासन बर्षवाहन साजै |
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अते सोहै |
तीनो रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहै |
अक्षयमाला वन माला मुंड माला धारी |
त्रिपुरारी कंसारी वर माला धारो |
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे |
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे।
कर मे श्रेष्ठ कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता
जग - कर्ता जग - हर्ता जग पालन कर्ता।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका
प्रणवाक्षर के मध्य ये तीनो एका |
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई गावे|
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे।

रविवार, 19 अप्रैल 2020

8:32 pm

आज रविवर है करें भगवान सूर्य की पूजा सफलता चूमेगी आपके कदम - के सी शर्मा



*रविवार को इस तरह करें भगवान सूर्य की पूजा :-*

रविवार के दिन सूर्य भगवान की पूजा का दिन माना जाता है। मान्यता है कि रविवार के दिन नियमित रूप से सूर्यदेव के नाम का उपवास कर उनकी आराधना की जाए उपासक की सारी द्ररिद्रता दूर हो जाती है। हिन्दू धर्म में पौराणिक कथाओं में सूर्य को ब्रह्मांड का केंद्र माना गया है। आदि काल से सूर्य की पूजा उपासना का प्रचलन है इसलिए सूर्य को आदिदेव के नाम से भी जाना जाता है। रोज सुबह स्नान करने के बाद भगवान सूर्य को जल अर्पित करने को बहुत ही पावन कार्य बताया गया है। कथाओं में कहा गया है कि सूर्य उपासना से इंसान बलिष्ठ होता है और उसमें सूर्य जैसा ही तेज आता है। खासकर रविवार के दिन व्रत रखना और नियम पूर्वक सूर्य की पूजा करना अध्यात्मिक जीवन के लिए बहुत ही लाभकारी बताया गया है।

सूर्य पूजा की विधि :-

सूर्य की उपासना रविवार को सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त करने की मान्यता है। रविवार के दिन सुबह स्नान करने के बाद पवित्रता के साथ निम्नलिखित मंत्र बोल करके सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें- ॐ ऐही सूर्यदेव सहस्त्रांशो तेजो राशि जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहणार्ध्य दिवाकर:।। ॐ सूर्याय नम:, ॐ आदित्याय नम:, ॐ नमो भास्कराय नम:। अर्घ्य समर्पयामि।।

इसके बाद सम्भव हो तो लाल फूल और चंदन, धूप अर्पित करें। सूर्य पूजा के लिए व्रत करना आवश्यक नहीं है। आप चाहें तो सूर्योदय से सूर्यास्त तक का व्रत कर सकते हैं।

शाम को भी सूर्यास्त से पहले शुद्ध घी के दीपक से भगवान सूर्य की अराधना करें। इस प्रकार आपकी एक दिन की पूजा या व्रत पूर्ण हो जाती है।

सूर्य पूजा के पांच फायदे :-

कथाओं में कहा गया है था भगवान सूर्य का उपासक कठिन से कठिन कार्य में सफलता प्राप्त करता और उसके आत्मबल में भी वृद्धि होती है।
नियमित सूर्य पूजा करने से मनुष्य निडर और बलशाली बनता है।
सूर्य पूजा मनुष्य को बुद्धिमान और विद्वान बनाती है।
सूर्य पूजा करने वाले की अध्यात्म में रुचि बढ़ती है और उसका आचरण पवित्रता प्राप्त होती है।
सूर्य पूजा से मनुष्य के बुरे विचारों जैसे- अहंकार, क्रोध, लोभ और कपट का नाश होता है।

सूर्य देव की जय हो !

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

10:40 pm

18 अप्रैल वरुथिनी एकादशी पर विशेष



18 अप्रैल वरुथिनी एकादशी*

🙏🏻 *युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव ! वैशाख मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? कृपया उसकी महिमा बताइये।*

🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! वैशाख (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार चैत्र ) कृष्णपक्ष की एकादशी ‘वरुथिनी’ के नाम से प्रसिद्ध है । यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करनेवाली है । ‘वरुथिनी’ के व्रत से सदा सुख की प्राप्ति और पाप की हानि होती है । ‘वरुथिनी’ के व्रत से ही मान्धाता तथा धुन्धुमार आदि अन्य अनेक राजा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं । जो फल दस हजार वर्षों तक तपस्या करने के बाद मनुष्य को प्राप्त होता है, वही फल इस ‘वरुथिनी एकादशी’ का व्रत रखनेमात्र से प्राप्त हो जाता है ।*

🙏🏻 *नृपश्रेष्ठ ! घोड़े के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है । भूमिदान उससे भी बड़ा है । भूमिदान से भी अधिक महत्त्व तिलदान का है । तिलदान से बढ़कर स्वर्णदान और स्वर्णदान से बढ़कर अन्नदान है, क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्यों को अन्न से ही तृप्ति होती है । विद्वान पुरुषों ने कन्यादान को भी इस दान के ही समान बताया है । कन्यादान के तुल्य ही गाय का दान है, यह साक्षात् भगवान का कथन है । इन सब दानों से भी बड़ा विद्यादान है । मनुष्य ‘वरुथिनी एकादशी’ का व्रत करके विद्यादान का भी फल प्राप्त कर लेता है । जो लोग पाप से मोहित होकर कन्या के धन से जीविका चलाते हैं, वे पुण्य का क्षय होने पर यातनामक नरक में जाते हैं । अत: सर्वथा प्रयत्न करके कन्या के धन से बचना चाहिए उसे अपने काम में नहीं लाना चाहिए । जो अपनी शक्ति के अनुसार अपनी कन्या को आभूषणों से विभूषित करके पवित्र भाव से कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या बताने में चित्रगुप्त भी असमर्थ हैं । ‘वरुथिनी एकादशी’ करके भी मनुष्य उसीके समान फल प्राप्त करता है ।*

🙏🏻 *राजन् ! रात को जागरण करके जो भगवान मधुसूदन का पूजन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो परम गति को प्राप्त होते हैं । अत: पापभीरु मनुष्यों को पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । यमराज से डरनेवाला मनुष्य अवश्य ‘वरुथिनी एकादशी’ का व्रत करे । राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है और मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है ।*
 ➡ *(सुयोग्य पाठक इसको पढ़ें, सुनें और गौदान का पुण्यलाभ प्राप्त करें ।)*
          🌞 *~ हिन्दू पंचांग ~* 🌞
🙏🏻🌷☘🌸🌺🌻🌹💐🌼🙏🏻
10:36 pm

शनि देव की यह विशेषताएं क्या आप जानते हैं -के सी शर्मा


शनि देव की यह विशेषताएं क्या आप जानते हैं -के सी शर्मा

शनिदेव अत्यंत विशिष्ट देव हैं। वे ग्रह भी है और देवता भी। उनका प्रताप ऐसा है कि वे राजा को रंक और रंक को राजा बना देते हैं।

आइए जानते हैं  उनकी यह 16 विशेषताएं :-

(1) सूर्यपुत्र श्री शनिदेव मृत्युलोक के ऐसे स्वामी हैं, अधिपति हैं, जो समय आने पर व्यक्ति के अच्‍छे-बुरे कर्मों के आधार पर सजा देकर सुधारने के लिए प्रेरित करते हैं।

(2) शनि आधुनिक युग के न्यायाधीश हैं और न्याय हमेशा अप्रिय होता है इसलिए उसे क्रूर समझते हैं।


(3) शनिदेव का काला रंग ही ऐसा रंग है, जिस पर दूजा रंग नहीं चढ़ता है।

(4) शनि का धातु लौह-इस्पात है, जो सबसे अधिक उपयुक्त तथा शक्तिशाली है।


(5) शनि की प्रिय वस्तुएं- तेल, कोयला, लौह, काला तिल, उड़द, जूता, चप्पल दान के रूप में प्रदान किया जाता है।

(6) शनिदेव की स्थापना में- समय तथा श्रम का आंशिक दान सर्वोत्तम दान है।

(7) श्री शनिदेव अध्यात्म के मालिक हैं, किसी भी आराधना, साधना, सिद्धि हेतु शनिदेव की उपासना परमावश्यक है।

(8) श्री शनिदेव संगठन के मालिक हैं, अत: उनकी कृपा बिना संयुक्त परिवार की कल्पना ही असंभव है।

(9) शनिदेव सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, प्रशासनिक, विद्या, व्यापार आदि में स्थापित ऊंचाई देने का कार्य करते हैं।

(10) शनिदेव रोगमुक्ति तथा आयुवृद्धि की सदैव कामना करते हैं।

(11) शनिदेव कलियुग के साक्षात भगवान हैं।

(12) शनिदेव के अनेक नाम हैं तथा उनका कार्यक्षेत्र विस्तृत तथा विशाल है।

(13) शनिदेव से राजा से लेकर रंक तक प्रभावित तथा डरे हुए रहते हैं।

(14) शनिदेव नश्वर जगत के शाश्वत असाधारण देव है।

(15) शनि का वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है।

(16) शनिदेव का आयुध- धनुष्य बाण और त्रिशूल है।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

9:55 pm

मंगल को जन्मे मंगल ही करते मंगलमय भगवान



पढ़े,आज श्री राम भक्त पवन पुत्र हनुमान जी का दिन है पर विशेष-के सी शर्मा

ज्ञान और गुण जिनके भीतर "महासागर" की भांति विद्यमान हैं वही हनुमान हैं :-
 
गोस्वामी तुलसीदासजी ने जब हनुमान चालीसा की रचना की तो बजरंग बलि का वर्णन "ज्ञान गुन सागर"कहकर किया। ज्ञान और गुण जिनके भीतर "महासागर" की भांति विद्यमान है वही "महावीर हनुमान" हैं। गोस्वामीजी ने आखिर ज्ञान और गुणों का महासागर हनुमानजी को ही क्यों कहा, हम इस पर ही विचार करेंगे।
महासागर के सात लक्षण हैं। सागर गहन है, विशाल है, गंभीर है, उसमें खारा जल है, वह सदैव मर्यादा में रहता है। सागर में बहुमूल्य रत्न होते हैं और सबसे बड़ी बात, भगवान नारायण समुद्र में अपने शेषशैया पर सदा विराजमान रहते हैं। महासागर के ये सातों लक्षण बजरंगबलि में देखे जा सकते हैं।

1) गहनता : गहन अर्थात गहराई, घना। महासागर में गहन जलराशि है, उसकी गहराई को कोई माप नहीं सकता। इसी तरह वीर हनुमान की कर्तव्यनिष्ठा गहन है। श्रीराम का कार्य ही उनके जीवन का उद्देश्य है। सीता की खोज हो या हिमालय से संजीवनी लाने का कार्य, नागपाश से राम-लखन को बंधनमुक्त करना हो या फिर पाताल लोक में जाकर अहिरावण को मारकर राम-लक्ष्मण को सुरक्षित वापस लाना। कठिन से कठिन, विशाल और असम्भव कार्य को सम्भव बनाना हनुमानजी की विशेषता है। प्रत्येक चुनौती का समाधान करने के लिए वे सदैव तत्पर रहते हैं। प्रत्येक कार्य को निपुणता से पूर्ण करने के लिए वे गहनता से विचार करते हैं।

2) विशालता : विशालता अर्थात व्यापकता,विस्तार। महासागर इतना विशाल होता है कि संसार की सारी नदियां उसमें आकर समा जाती हैं। महासागर तो एक ही है, उसकी सीमा की थाह पाना असम्भव है, इसलिए वह असीम है! अनेक देशों की सीमाएं सागर से लगकर है। महासागर तो एक ही है पर विभिन्न देशों में फैले उसके विस्तार को भिन्न-भिन्न नाम दे दिए गए। जैसे अपने यहां दक्षिण में हिन्द (हिन्दू) महासागर, पश्चिम में सिंधु (अरब) सागर और पूर्व में गंगा (बंगाल की खाड़ी) सागर। इसी तरह कहीं प्रशान्त महासागर (Pacific Ocean), अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean), दक्षिणध्रुवीय महासागर (Southern Ocean) तथा उत्तरध्रुवीय महासागर (Arctic Ocean) आदि।

हनुमानजी भी विशाल हैं। जब सीताजी की खोज के लिए श्रीरामजी की वानर सेना निकल पड़ी तो वे दक्षिण में सागर तट पर पहुंचे। सागर के उस पार लंका जाना है। हनुमानजी भी चुपचाप बैठे थे। तब जाम्बवन्त ने कहा,
“कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥”
जाम्बवन्त के इस कथन के कहते ही हनुमानजी का आकार विशालकाय हो गया। इतना ही नहीं तो वे परवातों के राजा की तरह दिख रहे थे और वे गरजकर कहते हैं कि मैं इस खारे समुद्र को खेल-खेल में लांघ सकता हूं।
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
हनुमानजी का हृदय भी विशाल है। वे सुग्रीव की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे। अंगद का कल्याण चाहते थे। यहां तक कि विभीषण जो शत्रुदल से आए हैं। श्रीराम पूछते हैं कि क्या किया जाए हनुमान? हनुमानजी कहते हैं कि विभीषण को अपना लीजिए। हनुमानजी के कथन पर श्रीरामजी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया। बजरंगबलि की व्यापकता और उनपर जनमानस की श्रद्धा को रेखांकित करते हुए हनुमान चालीसा में तुलसीदासजी बहुत सुंदर वर्णन करते हैं। “और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेई सर्ब सुख करई।।”अर्थात हे हनुमानजी! आपकी वंदना करने से सब प्रकार के सुख मिलते हैं। फिर किसी देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती।

3) गम्भीरता : गम्भीरता यानी गाम्भीर्य (सीरियस), शान्त, धीर। महासागर का यह तीसरा लक्षण है। वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग समुद्र से घिरा है जिसमें खारा पानी और बर्फ की चट्टानें हैं, शेष 29 प्रतिशत हिस्सा भूभाग है। इसके बावजूद समुद्र गहन होने के साथ ही गम्भीर है। यदि वह गंभीर नहीं होता तो शेष भूभाग को अपने तेज थपेड़ों से बर्बाद कर देता। शक्ति होने पर भी वह उसे प्रगट नहीं करता। हनुमानजी भी कार्य को लेकर गम्भीर रहते हैं। कहीं भी लड़कपन, हंसी-मजाक या फूहड़ता उनमें नहीं है। वे श्रीराम की आज्ञा का पालन यथावत करते हैं। श्रीसीता के मिलने पर उन्हें या अंगूठी देने की बात श्रीराम ने हनुमानजी से कही थी। हनुमानजी लंका गए, लंका-दहन कर लौट आए। और जब श्रीराम के समीप आए तब उन्होंने लंका में अपने द्वारा किए गए पराक्रम का वर्णन नहीं किया। वे चिंतन करने लगे कि श्रीराम को माता जानकी का सन्देश किन शब्दों में देना चाहिए। लंका दहन का प्रसंग पहले कहूं या माँ सीता का धैर्य का वर्णन? पर‘बुद्धिमतां वरिष्ठं’ महावीर ने वाणी के संयम और तप का महान आदर्श प्रस्तुत किया। हनुमान ने श्रीराम से कहा, “दृष्टवा-देखि”, यानी मैंने माता सीता के दर्शन किए। हनुमान के मुख से निकले इस पहले वाक्य को सुनते ही श्रीराम की विरह वेदना समाप्त हो गई, उनके अंतःकरण में मची खलबली समाप्त हो गई। यह हनुमानजी के गाम्भीर्य का एक उदाहरण है।

4) खारा जल : सागर खारे जल से भरा है। हनुमानजी का भला खारे जल से क्या सम्बन्ध? ऐसा प्रश्न हमारे मन में उठ सकता है। आँसू खारा ही होता है। माता जानकी को अशोक वाटिका में व्याकुल देखकर हनुमानजी की आँखों से आँसू आते हैं, वे श्रीराम के सीता-वियोग की पीड़ा को समझते हैं। सदा रामभक्ति में लीन होकर वे अश्रुपूरित अंखियों से श्रीराम का भजन करते हैं।

5) मर्यादा : समुद्र की लहरें बहुत तेज होती हैं। पर सागर तबाही नहीं मचाता। उसकी लहरें आती हैं और किनारे से होकर लौट जाती हैं। “मर्यादा” समुद्र का पांचवा लक्षण है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी का चरित्र श्रेष्ठतम है। वे अपने इन्द्रियों के स्वामी हैं। सदैव “मर्यादा” का पालन करते हैं। रामकथा में अनेक स्थानों पर रामकाज में सर्वाधिक अग्रेसर हनुमानजी ही हैं। श्रीराम की विजयगाथा में हनुमानजी के पराक्रम और सुझबुझ का अद्वितीय स्थान है। पर हनुमानजी में तनिक भी अहंकार नहीं है, वे सदा ही विनम्रता से श्रीराम के चरणों में बैठते हैं। संसार में जहां भी श्रीराम का मंदिर देखेंगे तो वहां पाएंगे कि महावीर हनुमान की मूर्ति श्रीराम के चरणों के समीप है।

स्वामी विवेकानन्द की महान शिष्या भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक “रिलिजन एंड धर्म”में लिखती हैं कि, “सीता की खोज, लंका-दहन, द्रोणगिरि के लाने आदि जितने भी कठिन कार्य आए, हनुमान सबसे आगे रहे, पर राज्याभिषेक के पश्चात् राज्यसभा में जब प्रभु रामचन्द्र सबको पारितोषिक वितरण करने लगे तो वे एक ओर रामनाम स्मरण में तल्लीन थे। ऐसे पवनसुत हनुमान सेवकों के आदर्श हैं।...यही स्वयंसेवक वृत्ति प्रत्येक कार्यकर्ता में होनी चाहिए।”

6) बहुमूल्य रत्न :सागर का छठा लक्षण है “बहुमूल्य रत्न”। हिन्दू पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से ही संसार को रत्न मिले हैं तथापि समुद्र रत्नों की खान है। समुद्र तल में मोती आदि बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। हनुमानजी की दृष्टि में सांसारिक धन व्यर्थ है। वे “रामरतन” धन से परिपूर्ण हैं। हनुमान की पहचान यह रामधन ही है। रामभक्ति ऐसी कि जिनकी वे पूजा करते हैं वे स्वयं श्रीराम उनको अपने हृदय से लगाते हैं।

7) नारायण का वास :पुराणों के अनुसार, क्षीरसागर में भगवान नारायण लक्ष्मीजी के साथ शेषनाग पर विराजित हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान विष्णु समुद्र में विराजमान हैं। हनुमानजी के हृदय में सदैव भगवान श्रीराम विराजमान रहते हैं। अयोध्या में श्रीराम-जानकी के सम्मुख हनुमानजी ने अपना हृदय चीरकर भरी सभा में“सीता सहित राम-लखन” का दर्शन करवाया। इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।

सचमुच महावीर हनुमान ज्ञान-गुण सागर हैं। उन्हें ज्ञान है कि वे कौन हैं? वे जानते हैं कि उनके जीवन का क्या उद्देश्य है? श्रीराम चरणों में सदा समर्पित, श्रीराम के आदेश का पालन करना यही उनका जीवन है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि महावीर को आदर्श मानो।
स्वामीजी कहते हैं :-

 , “तुम्हें महावीर के चरित्र को आदर्श के रूप में अपने सामने रखना होगा। देखो, किस प्रकार से रामचंद्र की आज्ञा पर समुद्र को लांघ गए। उन्होंने अपने जीवन या मृत्यु की तनिक चिंता नहीं की। वे अपनी इंद्रियों के पूर्ण स्वामी थे और अदभुत प्रज्ञा से संपन्न थे। तुम्हें व्यक्तिगत सेवा के इस महान् आदर्श के नमूने पर अपने जीवन का निर्माण करना होगा। उसके द्वारा अन्य समस्त आदर्श भी जीवन में स्वतः धीरे-धीरे प्रकट होंगे। गुरु की आज्ञा का आँख मूंद कर पालन करो। ब्रह्मचर्य का निष्ठापूर्वक आचरण ही सफलता का मूल मंत्र है। हनुमान जहां एक ओर सेवा के आदर्श के प्रतीक हैं, वहीं दूसरी ओर वे समस्त संसार को आतंकित कर देने वाले सिंहवत् साहस के भी प्रतीक हैं। राम के हित के लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करने में तनिक भी संकोच नहीं है। राम के सेवा के अतिरिक्त प्रत्येक चीज की ओर से विरक्त हैं। यहां तक कि विश्व के महान् देवता ब्रह्मा अथवा विष्णु के स्थान को प्राप्त करने की लालसा भी नहीं है। उनके जीवन का एक ही व्रत है- राम की प्रत्येक इच्छा को क्रियान्वित करना। ऐसी ही पूर्ण-समर्पणकारी भक्ति चाहिए।”

हनुमानजी भक्ति, सेवा, बल, बुद्धि, विवेक, मर्यादा, संगीत और ज्ञान-गुण के प्रतीक हैं। आज संसार में फैले आसुरी शक्ति और अनैतिकता से लड़ने के लिए हनुमत शक्ति की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों के अनुसार “महावीर हनुमान का आदर्श” हमें अपनाना ही होगा। श्रीराम मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा देशभर श्रीराम भक्त कर रहे हैं। आइए, रामकाज के लिए हनुमानजी के आदर्श को अंगीकृत करें।

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

9:09 pm

रामसेतु के डूबते पत्थर और गिलहरी का कर्म



*जाने,"गिलहरी" अथवा राम सेतु के डूबते "पत्थर" - के सी शर्मा*


गिलहरी की पीठ पर धारियां देखीं आपने?

इनके बारे में एक बड़ी ही प्यारी कहानी सुनी है मैंने - आप में से कुछ लोगों ने शायद सुनी होगी - पर यहाँ शेयर करने को जी चाहा मेरा। तो कहानी पेश है:-

जब श्री राम अपनी पत्नी व अनुज के साथ वन वास पर थे - लतो रास्ते चलते हर तरह के धरातल पर पैर पड़ते रहे - कहीं नर्म घास भी होती, कहीं कठोर धरती भी, कही कांटे भी,
 ऐसे ही चलते हुए श्री राम का पैर एक नन्ही सी गिलहरी पर पडा - और वे ना जान पाए कि ऐसा हुआ है।
श्री राम के चरणों को कठोर धरती की अपेक्षा मखमली सी अनुभूति हुई - तो उन्होने एक पल को अपना चरण टेके रखा - फिर नीचे की ओर देखा तो चौंक पड़े |

उन्हें दुःख हुआ कि इस छोटी सी गिलहरी को मेरे वजन से कितना दर्द महसूस हुआ होगा ।
 उन्होंने उस नन्ही गिलहरी को उठा कर प्यार किया और बोले - अरे - मेरा पाँव तुझ पर पड़ा - तुझे कितना दर्द हुआ होगा ना?

गिलहरी ने कहा - प्रभु - आपके चरण कमलों के दर्शन कितने दुर्लभ हैं - संत महात्मा इन चरणों की पूजा करते नहीं थकते - मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन चरणों की सेवा का एक पल मिला - इन्हें इस कठोर राह से एक पल का आराम मैं दे सकी।

प्रभु ने कहा - फिर भी - दर्द तो हुआ होगा ना ?
तू चिल्लाई क्यों नहीं ?

गिलहरी बोली - प्रभु , कोई और मुझ पर पाँव रखता, तो मैं चीखती "हे राम!! राम राम !!! " , किन्तु , जब आप का ही पैर मुझ पर पडा - तो मैं किसे पुकारती?

श्री राम ने गिलहरी की पीठ पर बड़े प्यार से उंगलिया फेरीं - जिससे उसे दर्द में आराम मिले | अब वह इतनी नन्ही है कि तीन ही उंगलियाँ फिर सकीं ।
 तब से गिलहरियों के शरीर पर श्री राम की उँगलियों के निशान होते हैं ।
 ( अब यह मुझसे न पूछियेगा कि क्या इससे पहले गिलहरियों की पीठ पर धारियां न थीं :) , क्योंकि यह एक कहानी है, और राम जी ने यह रेखाएं सृष्टि के आरम्भ में खींची या अब, इससे कोई फर्क पड़ता भी नहीं ।
सी तरह वहां भी फर्क नहीं पड़ता कि केले के पत्ते के बीच की धारी सृष्टि के आरम्भ में बनाई गयी, या उस वक़्त :)  वैसे सुना है कि भारत के अलावा दूसरे देशों की गिलहरियों में यह धारियां नहीं मिलतीं ? )

 *श्री राम सेतु और डूबते पत्थर*

जब श्री राम की वानर सेना लंका जाने के लिए सेतु बना रही थी, तब का एक वाकया है।

श्री राम का नाम लिख कर वानर भारी भारी पत्थरों को समुद्र में डालते - और वे पत्थर डूबते नहीं - तैरने लगते ।
 श्री राम ने सोचा कि मैं भी मदद करूँ - ये लोग मेरे लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं । तो प्रभु ने भी एक पत्थर को पानी में
 छोड़ा ।
लेकिन वह तैरा नहीं , डूब गया । फिर से उन्होंने एक और पत्थर छोड़ा - यह भी डूब गया । यही हाल अगले कई पत्थरों का भी हुआ | प्रभु ने हैरान हो कर हनुमान जी से पूछा - तो इस पर हनुमान जी ने जवाब दिया।

" हे प्रभु ! आप इस जगत रुपी भवसागर के तारणहार हैं ! आपके "नाम" के सहारे कोई कितना भी बड़ा और (पाप के बोझ से) भारी पत्थर हो, वह भी इस भवसागर पर तैर कर तर जाएगा !
किन्तु प्रभु - जिसे आप ही छोड़ दें - वह तो डूब ही जाएगा ना?"
8:57 pm

आज सोमवार का दिन शंकर भगवान का दिन है जाने,सोमवार के दिन शिव शंकर की पूजा के साथ इनकी भी करें पूजा, मिलेगा सर्वोत्तम लाभ- के सी शर्मा


हिंदू मान्यताओं के अनुसार सोमवार का दिन भोलेनाथ का दिन माना जाता है। सप्ताह के सातों दिन किसी न किसी भगवान की पूजा की जाती है, माना जाता है कि शिवजी की भक्ति करने से वे जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं, उनकी भक्ति हर पल मानी जाती है। सच्चे मन से पूजा की जाए तो शिव अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं व उनकी हर मनोकामना जल्दी पूरी करते हैं। सोमवार को शिवजी की पूजा करना अधिक लाभदायक होता है।

सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत सोमेश्वर व्रत के नाम से जाना जाता है। इसके अपने धार्मिक महत्व होते हैं। इसी दिन चन्द्रमा की पूजा भी की जाती है। हमारे धर्मग्रंथों में सोमेश्वर शब्द के दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ है– सोम यानी चन्द्रमा। चन्द्रमा को ईश्वर मानकर उनकी पूजा और व्रत करना। सोमेश्वर शब्द का दूसरा अर्थ है- वह देव, जिसे सोमदेव ने भी अपना भगवान माना है। उस भगवान की सेवा-उपासना करना, और वह देवता हैं–भगवान शिव।


सोमवार व्रत के नियम :-

सोमवार का व्रत साधारणतय दिन के तीसरे पहर तक होता है|व्रत में फलाहार या पारण का कुछ खास नियम नहीं है|दिन रात में केवल एक समय भोजन करें|इस व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए|सोमवार के व्रत तीन प्रकार के है- साधारण प्रति सोमवार, सोम्य प्रदोष और सोलह सोमवार- विधि तीनों की एक जैसी होती है|शिव पूजन के बाद कथा सुननी चाहिए।


सोमवार के दिन शिव पूजन का विधान :-

पौराणिक मान्यता के अनुसार सोमवार के व्रत और पूजा से ही सोमदेव ने भगवान शिव की आराधना करना शुरु की थी। जिससे सोमदेव अपने सौंदर्य को पाया था। भगवान शंकर ने भी प्रसन्न होकर दूज यानी द्वितीया तिथि के चन्द्रमा को अपनी जटाओं में मुकुट की तरह धारण किया। यही कारण है कि बहुत से साधू-संत और धर्मावलंबी इस व्रत परंपरा में शिवजी की पूजा-अर्चना भी करते हैं। धार्मिक आस्था व परंपरा के चलते प्राचीन काल से ही सोमवार व्रत पर आज भी कई लोग भगवान शिव और पार्वती की पूजा करते आ रहे हैं। लेकिन यह चंद्र उपासना से ज्यादा भगवान शिव की उपासना के लिए प्रसिद्ध हो गया। भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा कर सुख और कामनापूर्ति होती है।


सोमवार व्रत आरती

जय शिव ओंकारा जय शिव ओंकारा |
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अर्दाडी धारा |
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजे |
हंसानन गरुडासन बर्षवाहन साजै |
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अते सोहै |
तीनो रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहै |
अक्षयमाला वन माला मुंड माला धारी |
त्रिपुरारी कंसारी वर माला धारो |
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे |
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे।
कर मे श्रेष्ठ कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता
जग - कर्ता जग - हर्ता जग पालन कर्ता।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका
प्रणवाक्षर के मध्य ये तीनो एका |
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई गावे|
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे।

रविवार, 12 अप्रैल 2020

12:31 am

जाने क्यों लगाते हैं तिलक, क्या है इसका वैज्ञानिक महत्व!, जानिए इसके 7 फायदे - के सी शर्मा



हमारे माथे के बीचों-बीच आज्ञाचक्र होता है। जो इड़ा, पिंगला तथा सुभुम्ना नाड़ी का संगम है। तिलक हमेशा आज्ञाचक्र पर किया जाता है, जोकि हमारा चेतना केंद्र भी कहलाता है।

किसी के माथे पर तिलक लगा देखकर मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर टीका लगाने से फायदा क्या है?
क्या यह महज दूसरों के सामने दिखावे के मकसद से किया जाता है या फिर तिलक धारण का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है?

दरअसल, टीका लगाने के पीछे आध्यात्म‍िक भावना के साथ-साथ दूसरे तरह के लाभ की कामना भी होती है। आम तौर पर चंदन, कुमकुम, मिट्टी, हल्दी, भस्म आदि का तिलक लगाने का विधान है। अगर कोई तिलक लगाने का लाभ तो लेना चाहता है, पर दूसरों को यह दिखाना नहीं चाहता, तो शास्त्रों में इसका भी उपाय बताया गया है। कहा गया है कि ऐसी स्थ‍िति में ललाट पर जल से तिलक लगा लेना चाहिए।

इससे लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर कुछ लाभ बड़ी आसानी से मिल जाते हैं :-

1. तिलक करने से व्यक्त‍ित्व प्रभावशाली हो जाता है। दरअसल, तिलक लगाने का मनोवैज्ञानिक असर होता है, क्योंकि इससे व्यक्त‍ि के आत्मविश्वास और आत्मबल में भरपूर इजाफा होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से मस्तिष्क में शांति, तरावट तथा शीतलता बनी रहती है। इससे दिमाग में सेटाटोनिन व बीटाएंडारफिन नामक रसासनों का संतुलन होता है तथा मेघाशक्ति बढ़ती है।

2. ललाट पर नियमित रूप से तिलक लगाने से मस्तक में तरावट आती है।  लोग शांति व सुकून अनुभव करते हैं। यह कई तरह की मानसिक बीमारियों से बचाता है। तिलक लगवाते समय सिर पर हाथ इसलिए रखते हैं ताकि सकारात्मक उर्जा हमारे शीर्ष चक्र पर एकत्र हो तथा हमारे विचार सकारात्मक हों।

3. दिमाग में सेराटोनिन और बीटा एंडोर्फिन का स्राव संतुलित तरीके से होता है, जिससे उदासी दूर होती है और मन में उत्साह जागता है। यह उत्साह लोगों को अच्छे कामों में लगाता है। भगवान को चंदन अर्पण- भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

4. इससे सिरदर्द की समस्या में कमी आती है। शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।

5. हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है। हल्दी में एंटी बैक्ट्र‍ियल तत्व होते हैं, जो रोगों से मुक्त करता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगा कर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।

6. धार्मिक मान्यता के अनुसार, चंदन का तिलक लगाने से मनुष्य के पापों का नाश होता है. लोग कई तरह के संकट से बच जाते हैं. ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक, तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है।

7. माना जाता है कि चंदन का तिलक लगाने वाले का घर अन्न-धन से भरा रहता है और सौभाग्य में बढ़ोतरी होती है।

मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें ।

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

11:54 pm

प्रसन्न हो तो हर कामना पूरी करते हैं शनिदेव। के सी शर्मा



प्रसन्न हो हर कामना पूरी करते हैं शनिदेव।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार न्याय के देवता माने जाने वाले सूर्य पुत्र शनिदेव की कृपा दृष्टि जिस किसी के उपर भी पड़ जाती है उसके जीवन का भाग्योदय शुरू होने से कोई नहीं रोक सकता है। शनि देव केवल उन्हीं लोगों से प्रसन्न होते हैं, जो न्याय के मार्ग पर चलते हैं। अगर आप चाहते हैं कि शनिदेव की शुभ दृष्टि हमेशा आप पर बनी रहे तो ये उपाय जरूर करें।

पाना है बजरंग बली की भरपूर कृपा तो शनिवार को घर पर ही करना न भूले ये काम

1- अगर किसी को शनि देव की कृपा नहीं मिल रही है तो काले घोड़े की नाल या नाव की कील से अंगूठी बनाकर अपनी मध्यमा उंगली में शनिवार के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त बीच कभी भी ऊँ शनिदेवाय नमः मंत्र का 108 बार जप करके पहन लें।

2- हर शनिवार को काले तिल के साथ आटा और शक्‍कर मिलाकर उसे चींटियों के खाने के लिये डालें।

3- शनि दोषों से मुक्‍ती पाने के लिये उनके इन नामों का 108 बार जप करें। नाम इस प्रकार है- कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्रान्तक, यम, सौरि, शनैश्चर, मंद, पिप्पलाश्रय।

4- शनिवार के दिन काले तिल, काला कपड़ा, कंबल, लोहे के बर्तन, उदड़ की दाल का दान करें। इससे शनि देव खुश होकर शुभ फल देते हैं।

5- शनिवार के दिन बंदरों को गुड़ और चने खिलाएं एवं श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें। ऐसा करने से शनि दोषों का सामना नहीं करना पड़ता।

6- शनिवार के दिन शनिदेव की पूजा करें अैर उन्हें नीले रंग के फूल अर्पित करें।

7- शनिवार के दिन इस शनि मंत्र ।। ऊँ शं शनैश्चराय नमः ।। का रुद्राक्ष की माला से 108 बार जप करने से शनिदेव की कृपा हमेशा बनी रहती है।

8- अगर कुंडली के अनुसार शनि आपको परेशान कर रहा है तो लगातार 40 दिनों तक शनिदेव के मंत्रों का जप एवं श्री शनि चालीसा का पाठ सुबह शाम करने से सभी तरह के शनि दोषों से मुक्ति मिलने लगती है।

हनुमान जी और शनिदेव का शनिवार विशेष दिन :-

धार्मिक मान्यता है कि शनिवार को हनुमानजी की पूजा करने से शनि की साढ़ेसाती से होने वाली समस्याओं से पूरी तरह से राहत मिलती हैं। राम भक्त बजरंगबली की शनिवार को पूजा से शनि के हर प्रकार के प्रकोप पर काबू हो जाता है। हनुमान जी की पूजा से सूर्य-मंगल के अवाला शनि की शत्रुता और योगों के कारण आई समस्याओं से भी राहत मिलती हैं। शनिवार का दिन दोनों ही भगवान का प्रिय दिन माना जाता है। इस दिन शनिदेव और हनुमान जी की आराधना होती हैं। कई शनि मंदिरों में हनुमान जी भी शनिदेव के पास ही विराजमान होते हैं। दरअसल कई भक्त शनिदेव की पूजा के साथ हनुमान जी की भी पूजा करते हैं।


जब शनिदेव को हनुमान जी ने आजादी दिलाई :-

रामायण युग के समय हनुमान जी, सीता माता को खोजते हुए लंका पहुंच गए थे, तब वहां एक कारागार में शनिदेव को उल्टा लटके हुए मिले। पवनपुत्र ने जब शनि से उल्टा लटके होने का कारण जाना तो बताया कि रावण ने अपने योग बल से उन समेत कई ग्रहों को कैद कर लिया। यह बात जानकर हनुमान जी ने शनि को रावण की जेल से आजादी दिलाई थी। इससे प्रसन्‍न होकर शनिदेव ने हनुमान जी से वरदान मांगने को कहा। हनुमान जी ने वरदान में एक वचन मांग लिया था। शनि को कलियुग में हनुमान भक्‍तों को अशुभ फल नहीं देना होगा। बजरंगबली ने शनि के कष्टों को दूर करके उनकी रक्षा की थी इसलिए शनि ने यह वचन दे दिया था कि कोई भी व्यक्ति शनिवार को हनुमान की पूजा करेगा उसे वे कोप भाजन नहीं बनायेंगे। रामायण काल से शनिदेव की कृपा हनुमान जी के भक्तों पर बनी रहती हैं।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

5:37 pm

जाने कैसे, जीवन में सफलता की कुंजी है सिद्ध कुंजिका स्तोत्र पर विशेष-के सी शर्मा



 दुर्गा सप्तशती में वर्णित सिद्ध कुंजिका स्तोत्र एक अत्यंत चमत्कारिक और तीव्र प्रभाव दिखाने वाला स्तोत्र है। जो लोग पूरी दुर्गा सप्तशती का पाठ नहीं कर सकते वे केवल कुंजिका स्तोत्र का पाठ करेंगे तो उससे भी संपूर्ण दुर्गा सप्तशती का फल मिल जाता है। जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव, रोग, कष्ट, दुख, दारिद्रय और शत्रुओं का नाश करने वाले सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ नवरात्रि में अवश्य करना चाहिए। लेकिन इस स्तोत्र का पाठ करने में कुछ सावधानियां भी हैं, जिनका ध्यान रखा जाना आवश्यक है।

सिद्ध कुंजिका स्तोत्र पाठ की विधि

कुंजिका स्तोत्र का पाठ वैसे तो किसी भी माह, दिन में किया जा सकता है, लेकिन नवरात्रि में यह अधिक प्रभावी होता है। कुंजिका स्तोत्र साधना भी होती है, लेकिन यहां हम इसकी सर्वमान्य विधि का वर्णन कर रहे हैं। नवरात्रि के प्रथम दिन से नवमी तक प्रतिदिन इसका पाठ किया जाता है। इसलिए साधक प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान को साफ करके लाल रंग के आसन पर बैठ जाए। अपने सामने लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर देवी दुर्गा की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें। सामान्य पूजन करें।

अपनी सुविधानुसार तेल या घी का दीपक लगाए

अपनी सुविधानुसार तेल या घी का दीपक लगाए और देवी को हलवे या मिष्ठान्न् का नैवेद्य लगाएं। इसके बाद अपने दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, एक रुपए का सिक्का रखकर नवरात्रि के नौ दिन कुंजिका स्तोत्र का पाठ संयम-नियम से करने का संकल्प लें। यह जल भूमि पर छोड़कर पाठ प्रारंभ करें। यह संकल्प केवल पहले दिन लेना है। इसके बाद प्रतिदिन उसी समय पर पाठ करें।

कुंजिका स्तोत्र के लाभ

धन लाभ
  जिन लोगों को सदा धन का अभाव रहता हो। लगातार आर्थिक नुकसान हो रहा हो। बेवजह के कार्यों में धन खर्च हो रहा हो उन्हें कुंजिका स्तोत्र के पाठ से लाभ होता है। धन प्राप्ति के नए मार्ग खुलते हैं। धन संग्रहण बढ़ता है।

शत्रु मुक्ति
  शत्रुओं से छुटकारा पाने और मुकदमों में जीत के लिए यह स्तोत्र किसी चमत्कार की तरह काम करता है। नवरात्रि के बाद भी इसका नियमित पाठ किया जाए तो जीवन में कभी शत्रु बाधा नहीं डालते। कोर्ट-कचहरी के मामलों में जीत हासिल होती है।

रोग मुक्ति दुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ जीवन से रोगों का समूल नाश कर देते हैं। कुंजिका स्तोत्र के पाठ से न केवल गंभीर से गंभीर रोगों से मुक्ति मिलती है, बल्कि रोगों पर होने वाले खर्च से भी मुक्ति मिलती है।

कर्ज मुक्ति यदि किसी व्यक्ति पर कर्ज चढ़ता जा रहा है। छोटी-छोटी जरूरतें पूरी करने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है, तो कुंजिका स्तोत्र का नियमित पाठ जल्द कर्ज मुक्ति करवाता है।

सुखद दांपत्य जीवन दांपत्य जीवन में सुख-शांति के लिए कुंजिका स्तोत्र का नियमित पाठ किया जाना चाहिए। आकर्षण प्रभाव बढ़ाने के लिए भी इसका पाठ किया जाता है।

इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक

देवी दुर्गा की आराधना, साधना और सिद्धि के लिए तन, मन की पवित्रता होना अत्यंत आवश्यक है। साधना काल या नवरात्रि में इंद्रिय संयम रखना जरूरी है। बुरे कर्म, बुरी वाणी का प्रयोग भूलकर भी नहीं करना चाहिए। इससे विपरीत प्रभाव हो सकते हैं।

कुंजिका स्तोत्र का पाठ बुरी कामनाओं, किसी के मारण, उच्चाटन और किसी का बुरा करने के लिए नहीं करना चाहिए। इसका उल्टा प्रभाव पाठ करने वाले पर ही हो सकता है।

साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें। मैथुन के बारे में विचार भी मन में न लाएं।

श्री दुर्गा सप्तशती में से हम आपको एक एसा पाठ बता रहे हैं, जिसके करने से आपकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। इस पाठ को करने के बाद आपको किसी अन्य पाठ की आवश्यकता नहीं होगी। यह पाठ है..सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्।  समस्त बाधाओं को शांत करने, शत्रु दमन, ऋण मुक्ति, करियर, विद्या, शारीरिक और मानसिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं तो सिद्धकुंजिकास्तोत्र का पाठ अवश्य करें। श्री दुर्गा सप्तशती में यह अध्याय सम्मिलित है। यदि समय कम है तो आप इसका पाठ करके भी श्रीदुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ जैसा ही पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। नाम के अनुरूप यह सिद्ध कुंजिका है। जब किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो, समस्या का समाधान नहीं हो रहा हो, तो सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करिए। भगवती आपकी रक्षा करेंगी।

सिद्ध कुंजिका स्तोत्र की महिमा

भगवान शंकर कहते हैं कि सिद्धकुंजिका स्तोत्र का पाठ करने वाले को देवी कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास और यहां तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है। केवल कुंजिका के पाठ मात्र से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है।

क्यों है सिद्ध

इसके पाठ मात्र से मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि उद्देश्यों की एक साथ पूर्ति हो जाती है। इसमें स्वर व्यंजन की ध्वनि है। योग और प्राणायाम है।

संक्षिप्त मंत्र

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥  ( सामान्य रूप से हम इस मंत्र का पाठ करते हैं लेकिन संपूर्ण मंत्र केवल सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में है)

संपूर्ण मंत्र यह है

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ऊं ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

कैसे करें

सिद्ध कुंजिका स्तोत्र को अत्यंत सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। प्रतिदिन की पूजा में इसको शामिल कर सकते हैं। लेकिन यदि अनुष्ठान के रूप में या किसी इच्छाप्राप्ति के लिए कर रहे हैं तो आपको कुछ सावधानी रखनी होंगी।
1 संकल्प: सिद्ध कुंजिका पढ़ने से पहले हाथ में अक्षत, पुष्प और जल लेकर संकल्प करें। मन ही मन देवी मां को अपनी इच्छा कहें।
2  जितने पाठ एक साथ ( 1, 2, 3, 5. 7. 11) कर सकें, उसका संकल्प करें। अनुष्ठान के दौरान माला समान रखें। कभी एक कभी दो कभी तीन न रखें।
3 सिद्ध कुंजिका स्तोत्र के अनुष्ठान के दौरान जमीन पर शयन करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें।
4 प्रतिदिन अनार का भोग लगाएं। लाल पुष्प देवी भगवती को अर्पित करें।
5 सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में दशों महाविद्या, नौ देवियों की आराधना है।

सिद्धकुंजिका स्तोत्र के पाठ का समय

 रात्रि 9 बजे करें तो अत्युत्तम।
2 रात को 9 से 11.30 बजे तक का समय रखें।

आसन

लाल आसन पर बैठकर पाठ करें

   दीपक

घी का दीपक दायें तरफ और सरसो के तेल का दीपक बाएं तरफ रखें। अर्थात दोनों दीपक जलाएं

किस इच्छा के लिए कितने पाठ करने हैं

1 विद्या प्राप्ति के लिए....पांच पाठ ( अक्षत लेकर अपने ऊपर से तीन बार घुमाकर किताबों में रख दें)
2 यश-कीर्ति के लिए.... पांच पाठ ( देवी को चढ़ाया हुआ लाल पुष्प लेकर सेफ आदि में रख लें)
3 धन प्राप्ति के लिए....9 पाठ ( सफेद तिल से अग्यारी करें)
4 मुकदमे से मुक्ति के लिए...सात पाठ ( पाठ के बाद एक नींबू काट दें। दो ही हिस्से हों ध्यान रखें। इनको बाहर अलग-अलग दिशा में फेंक दें)
5 ऋण मुक्ति के लिए....सात पाठ ( जौं की 21 आहुतियां देते हुए अग्यारी करें। जिसको पैसा देना हो या जिससे लेना हो, उसका बस ध्यान कर लें)
6 घर की सुख-शांति के लिए...तीन पाठ ( मीठा पान देवी को अर्पण करें)
7 स्वास्थ्यके लिए...तीन पाठ ( देवी को नींबू चढाएं और फिर उसका प्रयोग कर लें)
8 शत्रु से रक्षा के लिए..., 3, 7 या 11 पाठ ( लगातार पाठ करने से मुक्ति मिलेगी)
9 रोजगार के लिए...3,5, 7 और 11 ( एच्छिक) ( एक सुपारी देवी को चढाकर अपने पास रख लें)
10 सर्वबाधा शांति-  तीन पाठ (  लोंग के तीन जोड़े अग्यारी पर चढ़ाएं या देवी जी के आगे तीन जोड़े लोंग के रखकर फिर उठा लें और खाने या चाय में प्रयोग कर लें।

श्री सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्

शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत् ॥१॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥२॥

कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥४॥

अथ मन्त्रः

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
इति मन्त्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥१॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥२॥

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ॥३॥

क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ॥४॥

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥५॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥६॥

हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥७॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ॥८॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे ॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे ।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् ।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥
इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती
संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्ण।

शनिवार, 28 मार्च 2020

9:41 pm

जाने,दुर्गा सप्तशती पाठ और अनुष्ठान विधि-के सी शर्मा





दुर्गा सप्तशती के अध्याय पाठन से संकल्प अनुसार कामनापूर्ति

1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।

दुर्गा सप्तशती का पाठ करने और सिद्ध करने की विभिन्न विधियाँ

*सामान्य_विधि*

नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।

*वाकार_विधि*

यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।

*संपुट_पाठ_विधि*


किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।

*सार्ध_नवचण्डी_विधि*

इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।

*शतचण्डी_विधि*

मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा
''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।''
इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें।
शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।

*इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त*


प्रतिलोम विधि,
कृष्ण विधि,
चतुर्दशीविधि,
अष्टमी विधि,
सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि,
प्रतिगृहणाति विधि

आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।

कुछ लोग दुर्गा सप्तशती के पाठ के बाद हवन खुद की मर्जी से कर लेते है और हवन सामग्री भी खुद की मर्जी से लेते है ये उनकी गलतियों को सुधारने के लिए है।

*दुर्गा सप्तशती के वैदिक आहुति की सामग्री।*


प्रथम अध्याय- एक पान देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।

द्वितीय अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष

तृतीय अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद

चतुर्थ अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।

पंचम अध्ययाय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।

षष्टम अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।

सप्तम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।

अष्टम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।

नवम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।

दशम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।

एकादश अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 मेें अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री।

द्वादश अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल।

त्रयोदश अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।

*मुख्य पाठ विधि*

यह विधि यहाँ संक्षिप्त रूपसे दी जाती है।
नवरात्र आदि विशेष अवसरों पर तथा
शतचण्डी आदि अनुष्ठानों में विस्तृत विधि का उपयोग किया जाता है।
उसमें यन्त्रस्थ कलश, गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तर्षि, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी, 50 क्षेत्रपाल तथा अन्यान्य देवताओं की वैदिक विधि से पूजा होती है।
अखण्ड दीप की व्यवस्था की जाती है।
देवीप्रतिमा की
अंगन्यास और अग्न्युत्तारण आदि विधि के साथ विधिवत् पूजा की जाती है।

*नवदुर्गापूजा,*
ज्योति:पूजा,
वटुक-गणेशादि सहित कुमारीपूजा,
अभिषेक,
नान्दीश्राद्ध,
रक्षाबन्धन,
पुण्याहवाचन,
मंगलपाठ,
गुरुपूजा,
तीर्थावाहन,
मन्त्र - स्नान आदि,
आसनशुद्धि,
प्राणायाम,
भूतशुद्धि,
प्राणप्रतिष्ठा,
अन्तर्मातृकान्यास,
बहिर्मातृकान्यास,
सृष्टिन्यास,
स्थितिन्यास,
शक्तिकलान्यास,
शिवकलान्यास,
हृदयादिन्यास,
षोढान्यास,
विलोमन्यास,
तत्त्वन्यास,
अक्षरन्यास,
व्यापकन्यास,
ध्यान,
पीठपूजा,
विशेषाघ्घ्य,
क्षेत्रकीलन,
मन्त्रपूजा,
विविध मुकद्राविधि,
आवरणपूजा एवं प्रधानपूजा

आदि का शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अनुष्ठान होता है।
इस प्रकार विस्तृत विधि से पूजा करने की इच्छा वाले भक्तों को अन्यान्य पूजा-पद्धतियों की सहायता से भगवती की आराधना करके पाठ आरम्भ करना चाहिये।

*पाठ विधि आरम्भ*


साधक स्नान करके पवित्र हो आसन-शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसन पर बैठे; साथ में शुद्ध जल, पूजन सामग्री और श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक रखे।
पुस्तक को अपने सामने काष्ठ आदि के शुद्ध आसन पर विराजमान कर दे। ललाट में अपनी रुचि के अनुसार भस्म, चन्दन अथवा रोली लगा ले, शिखा बाँध ले; फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्व-शुद्धि के लिये चार बार आचमन करे। उस समय अग्रांकित चार मन्त्रों को क्रमशः पढ़े-

ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥

ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥

ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

ॐ ऐं हीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः
स्वाहा ॥

तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करे; फिर
'पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ०'
इत्यादि मन्त्र से कुशकी पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से

*संकल्प करे-*

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः । ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपराद्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे
आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे (संवत्सर का नाम) अमुकायने (अयन उत्तरायण/दक्षिणायन का नाम) महामाङ्गल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे  (मास) अमुकपक्षे (पक्ष का नाम) अमुकतिथौ (तिथि का नाम)
अमुकवासरान्वितायाम् (वार का नाम) अमुकनक्षत्रे (नक्षत्र का नाम) अमुकराशिस्थिते सूर्ये (सूर्य जिस राशि मे हो उसका उच्चारण)  अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनिषु (शेष सभी ग्रह उस समय जिस राशि पर हो उसका नाम लें) सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्य तिथौ (तिथि का नाम लें) सकलशास्त्र श्रुतिस्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्न:
अमुकशर्मा (अपने गोत्र का उच्चारण करें) अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुग्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-
विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टि धनधान्य समृद्धयर्थं श्रीनवदुर्गाप्रसादेन सर्वा-पन्निवृत्तिसर्वाभीष्ट फलावाप्तिधर्मार्थ काममोक्षचतुर्विध पुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वती देवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गला कीलकपाठ-केदतनत्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्ण जप सप्तशतीन्यास-ध्यान सहित चरित्र सम्बन्धि विनियोगन्यास ध्यानपूर्वकं च 'मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः ।' इत्याद्यारभ्य 'सावर्णिर्भविता मनुः' इत्यन्तं दुर्गा सप्तशती पाठं तदन्ते न्यासविधि सहित नवार्ण मन्त्र जपं वेद तन्त्रोक्त देवीसूक्त पाठं रहस्यत्रय पठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये।

इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की
विधि से पुस्तक की पूजा करे,

*पुस्तक पूजाका मन्त्र*


ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता: स्म ताम् ॥
(वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता)

ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्यच।
आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम्॥

इसके बाद योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करे, फिर मूल नवार्णमन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करे।
इसके बाद
शापोद्धार करना चाहिये।
इसके अनेक प्रकार हैं।

'ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।

इस मन्त्रका आदि और अन्त में सात बार जप करे।
यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है।
इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जप किया जाता है।
इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है।

यह मन्त्र इस प्रकार है-

ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा ।'

इसके जप के पश्चात् आदि और अन्त में सात-सात बार #मृतसंजीवनी विद्या का जप करना चाहिये,
जो इस प्रकार है-
'ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।'

मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती शापविमोचन का मन्त्र यह है-

'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।'

इस मन्त्र का आरम्भ में ही एक सौ आठ बार जप करना चाहिये, पाठ के अन्त में नहीं।
अथवा
रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्रों का आरम्भ में ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-

ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ- नारद संवाद सामवेदाधिपति ब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्रीं शक्तिः त्रिगुणात्म स्वरूप चण्डिका शापविमुक्तौ मम
संकल्पित कार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

ॐ (ह्रीं) रीं रेत:स्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिनयै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ १ ॥

ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुर सैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ २ ॥

ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ३ ॥

ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै
देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ४ ॥

ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥५ ॥

ॐ शं शक्ति स्वरूपिण्यै धूम्रलोचन घातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥ ६ ॥

ॐ तृं तृषा स्वरूपिण्यै चण्ड मुण्ड वध कारिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद्
विमुक्ता भव॥ ७ ॥

क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ८ ॥

ॐ जां जाति स्वरूपिण्यै निशुम्भ वध कारिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥९ ॥

ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भ वध कारिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ १० ॥

ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ ११॥

ॐ श्रं श्रद्धा स्वरूपिण्यै सकल फल दात्र्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ १२॥

ॐ कां कान्ति स्वरूपिण्यै राजवर प्रदायै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद विमुक्ता भव ॥ १३ ॥

ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गल महिम सहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १४॥

ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्य कारिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ १५॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्य कवच स्वरूपिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥ १६॥

ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेद स्वरूपिण्यै ब्रह्म वसिष्ठ विश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ १७॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महाकाली-महालक्ष्मी महासरस्वती स्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः ॥ १८ ॥

इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः ॥ १९॥

एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति
यः। क्षीणं कुर्यान्न संशयः ॥ २० ॥

इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताये अनुसार नौ कोष्ठों वाले यंत्र में अंगों यन्त्र में महालक्ष्मी आदिका पूजन करे, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ही सप्तशती के छः अंग माने गये हैं। इनके क्रम में भी मतभेद है। चिदम्बर-संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है। "

किंतु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है ।
उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गयी है।
जिस प्रकार सब मन्त्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीज का, फिर अर्गलारूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलकरूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिये।
यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।

'सप्तशती-सर्वस्व' के उपासना-क्रम में पहले शापोद्धार करके बाद में षडंगसहित पाठ करने का निर्णय किया गया है, अतः कवच आदि पाठ के पहले ही शापोद्धार कर लेना चाहिये।

कात्यायनी-तन्त्र में शापोद्धार तथा उत्कीलन का और ही प्रकार बतलाया गया है।

अन्त्याद्यार्कद्विरुद्रत्रिदिगळ्य्यङ्केष्विभर्तवः ।
अश्वोऽश्व इति सर्गाणां शापोद्धारे मनो: क्रमः ॥
' 'उत्कीलने चरित्राणां मध्याद्यन्तमिति
क्रमः।

अर्थात् सप्तशती के अध्यायों का तेरह- एक, बारह-दो, ग्यारह-तीन, दस-चार, नौ-पाँच तथा आठ-छ:के क्रम से पाठ करके अन्त में सातवें अध्याय को दो बार पढ़े।
यह शापोद्धार है और पहले मध्यम चरित्रका, फिर प्रथम चरित्र का, तत्पश्चात् उत्तर चरित्र का पाठ करना उत्कीलन है।
कुछ लोगों के मत में कीलक में बताये अनुसार 'ददाति प्रतिगृहणाति' के नियम से कृष्ण पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी तिथि में देवी को सर्वस्व-समर्पण करके उन्हीं का होकर उनके प्रसाद रूप से प्रत्येक वस्तु को उपयोग में लाना ही शापोद्धार और उत्कीलन है।
कोई कहते हैं- छ: अंगों सहित पाठ करना ही शापोद्धार है।
अंगों का त्याग ही शाप है। कुछ विद्वानों की राय में शापोद्धार कर्म अनिवार्य नहीं है, क्योंकि रहस्याध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा है कि जिसे एक ही दिन में पूरे पाठ का अवसर न मिले, वह एक दिन केवल मध्यम चरित्र का और दूसरे दिन शेष दो चरित्रों का पाठ करे।
इसके सिवा, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक पाठ करते हैं, उनके लिये एक दिन में एक पाठ न हो सकने पर एक, दो, एक, चार, दो, एक और दो अध्यायों के क्रम से सात दिनों में पाठ पूरा करने का आदेश दिया गया है।
ऐसी दशा में प्रतिदिन शापोद्धार और कीलक कैसे सम्भव है।
अस्तु, जो हो, हमने यहाँ जिज्ञासुओंके लाभार्थ शापोद्धार और उत्कीलन दोनों के विधान दे दिये हैं ।

साधक गण समयाभाव होने पर अपनी सुविधानुसार ही पाठ करें पूजा पाठ तप और जपादि में भाव की महत्ता सर्वोपरि मानी गयी है इसलिये केवल भाव शुद्ध रखें।

गुरुवार, 30 जनवरी 2020

12:40 am

गणेश जयंती पर विशेष रिपोर्ट के सी शर्मा की कलम से



 सर्वप्रथम तो प्रथमपूज्य, विघ्नहर्ता, विनायक श्री गणेश जयंती की सभी को शुभकामनाएं।
 हर साल माघ मास की शुक्‍ल पक्ष चतुर्थी को ये पर्व मनाया जाता है गणेश जयंती को माघ शुक्‍ल चतुर्थी (Magha Shukla Chaturthi), तिलकुंड चतुर्थी (Tilkund Chaturthi) और वरद चतुर्थी (Varad Chaturthi) भी कहा जाता है।
 मान्‍यता के अनुसार इस दिन श्रीगणेश का जन्‍मदिवस है। इस तिथि पर की गई गणेश पूजा अत्याधिक लाभ देने वाली होती है। अग्निपुराण में भी भाग्य और मोक्ष प्राप्ति के लिए तिलकुंड चतुर्थी के व्रत का विधान बताया गया है। इस चतुर्थी पर चंद्रदर्शन निषेध है और देखने पर मानसिक विकार उत्‍पन्‍न होते हैं, ऐसा कहा गया है।
 गणेश जी ने अनेकों असुरों का संहार कर धर्म रक्षा की आइये हम भी प्रभु श्री गणेश की जयंती पर संकल्पित हों धर्म रक्षा के लिए और असुरों के संहार के लिए।

जय विघ्नहर्ता श्री गणेश!

सोमवार, 6 जनवरी 2020

10:48 pm

पौष पुत्रदा एकादशी व्रत



🌷 *पौष पुत्रदा एकादशी* 🌷

➡ *06 जनवरी 2020 सोमवार को प्रातः 03:07 से 07 जनवरी मंगलवार को प्रातः 04:02 तक एकादशी है ।*
💥 *विशेष - 06 जनवरी सोमवार को एकादशी का व्रत (उपवास) रखें ।*


🙏🏻 *युधिष्ठिर बोले: श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?*

🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: राजन्! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।*

🙏🏻 *‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।*

🙏🏻 *‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।*

🙏🏻 *चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।*

🙏🏻 *पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।*

🙏🏻 *एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’*

🙏🏻 *राजा बोले: आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये ।*

🙏🏻 *मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।*

🙏🏻 *राजा ने कहा: विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।*

🙏🏻 *मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।*

🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ ।*

🙏🏻 *इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है ।*

🙏🏻🚩🙏🏻🚩🙏🏻🚩🙏🏻🚩🙏🏻

🙏ओम नमो नारायणाय 🙏

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

2:16 pm

दुर्गा स्तुति



*शिवकृतं-दुर्गास्तुति-!*


इस स्तुति का प्रयोग मां दुर्गा को
प्रसन्न करने के लिए भगवान् शिव
ने किया था।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म
खण्ड के उद्धृत इस स्तुति द्वारा
स्तवन करके शम्भु ने त्रिपुरासुर
का वध किया था।
यह स्तुति संपूर्ण अज्ञान को नाश
करने वाली तथा मनोरथों को पूरा
करने वाली है।

*श्रीमहादेव-उवाच*

रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि।
मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि।
ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥

त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके।
त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्।
तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥

वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥

नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता।
सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥

गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि।
गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी।
शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥

दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा।
देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥

स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्।
वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥
वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी।
सूर्ये तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥

*साभार*

समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल
विश्व का कल्याण करो माते

समस्त आधुनिक युग के सेकुलर असुरों
का नाश करो प्रभु महादेव

जयति पुण्य सनातन संस्कृति
जयति पुण्य भूमि भारत
जयतु जयतु हिन्दूराष्ट्रं

सदा सर्वदासुमंगल
हर हर महादेव
जय भवानी
जयश्रीराम

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

9:12 pm

हजारों वर्षों बाद भी भागवत गीता जैसा कोई ग्रंथ नहीं- के सी शर्मा



के सी शर्मा*
गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि उसकी रचना हुए हजारों वर्ष बीत गए हैं किन्तु उसके बाद, उसके समान किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं हुई है । 18 अध्याय एवं 700 श्लोकों में रचित तथा भक्ति, ज्ञान, योग एवं निष्कामता आदि से भरपूर यह गीता ग्रन्थ विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयंती मनायी जाती है ।

श्रीमद्भगवद्गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही है ।  गीता जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है और युद्ध जैसे घोर कर्मों में भी निर्लेप रहने की कला सिखाती है । मरने के बाद नहीं, जीते-जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता ! इस साल श्रीमद्भगवद्गीता जयंती अंग्रेजी तारीख 08 दिसंबर को है ।

‘गीताजी’ में
18 अध्याय हैं,
 700 श्लोक हैं,
94569 शब्द हैं ।
 विश्व की 578 से भी अधिक भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है ।

'यह मेरा हृदय है’- ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा है तो वह गीता जी है । गीता मे हृदयं पार्थ । ‘गीता मेरा हृदय है ।’

आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जब फाँसी की सजा दी जाती थी, तब ‘गीता’ के श्लोक बोलते हुए वे हँसते-हँसते फाँसी पर लटक जाते थे ।

श्री वेदव्यास ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरान्त कहा हैः

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सुता ।।

'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्री गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतः करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ विष्णु भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई है,

गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है । इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिश्योक्ति न होगी । गीता का भली भाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने आप हो सकता है । उसके लिए अलग से परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

श्रीमद् भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है । चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करें तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, सरलता, स्नेह, शांति और धर्म आदि दैवी गुण सहज में ही विकसित हो उठते हैं । अधर्म, अन्याय एवं शोषण  मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है । भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता ग्रन्थ पूरे विश्व में अद्वितीय है ।

गीता माता ने अर्जुन को सशक्त बना दिया। गीता माता अहिंसक पर वार नहीं कराती और हिंसक व्यक्तियों के आगे हमें डरपोक नहीं होने देती।

*देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।*

न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।
हस्तात्त्याक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।
भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता है तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।

विदेशों में श्री गीताजी का महत्व समझकर स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने लगे हैं, भारत सरकार भी अगर बच्चों एवं देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है तो सभी स्कूलों कॉलेज में गीता अनिवार्य कर देना चाहिए ।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

2:52 am

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा जो जैसा करे सो तस फल चाखा पूनम चतुर्वेदी



यह संसार कर्म प्रधान है यहाँ निरन्तर कर्म करते रहना पड़ता है, बिना कर्म किये यहाँ कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इस संसार में बहुत से लोग सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में अपना समय बैठे-बैठे नष्ट करते रहते हैं। परंतु यह सत्य है कि भविष्य का आविष्कार नहीं होता जो हम करते हैं वही हमारे भविष्य में परिवर्तित हो जाता है। अगर आप अपनी जिंदगी में कुछ अच्छा करोगे तो आपकी जिंदगी में अच्छा होगा अगर आप कुछ बुरा करोगे तो आपकी जिंदगी में बुरा ही होगा। बहुत सारे ऐसे लोग है जो आज जिंदगी में सफल है और उसके पीछे सफलता का कारण हैं कि उन्होंने जिंदगी में सफलता पाने के लिए कर्म किया है। जो लोग असफल हैं उन्होंने कहीं ना कहीं कर्म ना करने के लिए बहानों का सहारा लिया है। ऐसे लोग जिंदगी में सफल है आप किसी भी मनुष्य को देख लीजिए किसी भी सफल व्यक्ति से पूछ लीजिए कर्म से ही भविष्य का आविष्कार होता है कर्म से ही एक मनुष्य की पहचान होती है। अगर आप भी कुछ अच्छा कर्म करोगे तो आपकी भी एक नई पहचान बन सकती है। अगर आप हाथ पर हाथ रखे बैठे रहोगे तो आप जिंदगी में कुछ भी खास नहीं कर सकोगे क्योंकि आपको जिंदगी में कुछ भी पहचान बनानी है तो कर्म ही सबसे महत्वपूर्ण है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस के माध्यम से बताया है----- "करम प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करइ सो तस फल चाखा।।" जो जैसा कर्म करेगा उसको उन्हीं कर्मों के अनुसार फल भी भोगना पड़ेगा , यही संसार का विधान है।

हमारा पूनम चतुर्वेदी  का मानना है कि आज मनुष्य ने बहुत विकास कर लिया है परंतु कर्म की प्रधानता अपने स्थान पर अडिग है। यदि कुछ भी प्राप्त करने की कामना है आपको कर्म तो करना ही पड़ेगा,अगर आप एक डॉक्टर के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं तो डॉक्टरी सीखने के लिए आपको कर्म करना पड़ेगा। अगर आप एक सफल अध्यापक बनना चाहते हैं तो आपको उसके लिए भी कर्म करना पड़ेगा मेहनत करना पड़ेगी। अगर आप एक सफल राजनेता बनना चाहते हैं तो भी आपको कर्म करने की जरूरत पड़ेगी यदि आप अध्यात्म के क्षेत्र में जाना चाहते हैं तो आपको साधनारूपी कर्म करना पड़ेगा। अगर आप कुछ भी छोटा या बड़ा पाना चाहते हैं तो आपको कर्म तो करना ही पड़ेगा बिना कर्म के आप कुछ भी नहीं पा सकते। जब आप अच्छे कर्म करते हो मेहनत करते हो तो आपकी पहचान होती है यह आपकी पहचान ऐसी भी हो सकती है कि आप हमेशा के लिए पहचाने जाओ। जिंदगी में बहुत से लोग काम करते हैं उनको असफलताओं का सामना करना ही पड़ता है जो लोग दुनिया में एक पहचान बनाते हैं कर्म करके अपने मार्ग में मिल रही असफलताओं का सामना करते हैं वह दुनिया में एक पहचान बना जाते हैं इसलिए हमको भी दुनिया में एक पहचान बनाने के लिए कर्म करना चाहिए। उन लोगों की तरह जिन लोगों ने दुनिया में एक पहचान बनाई है कभी भी हमें हमारे लक्ष्य से नहीं भागना चाहिए। लक्ष्य को पाने के लिए हमेशा तैयार होना चाहिए तभी हम जिंदगी में एक सफल मनुष्य बन सकते हैं तभी हम एक पहचान बना सकते हैं। कर्म ही मनुष्य की पहचान होता है इंसान को निरंतर कर्म करना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि ----- कर्म करता चल फल की चिंता मत कर। अगर आप भी कर्म करते जाते है फल की चिंता किए बगैर तो आप अपने जीवन में एक पहचान बना सकते हो एक ऐसी पहचान की लोग आपको हमेशा हमेशा के लिए याद रख सकते हैं।

हम अच्छे कर्मों के द्वारा ही समाज में अपनी पहचान बनाते हुए, समाज में स्थापित हो सकते हैं। बिना कर्म किये इस संसार में किसी को कुछ भी नहीं प्राप्त होता है।

पूनम चतुर्वेदी छत्तीसगढ ,,

रविवार, 8 दिसंबर 2019

10:56 pm

श्रीमद्भागवत गीता जयंती पर विशेष



*श्रीमद भागवत गीता जयंती पर विशेष- के सी शर्मा*

*(मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष ११, मोक्षदा एकादशी-रविवार 08 दिसम्बर 2019)*
*श्रीमद्भागवतगीता*



गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि उसकी रचना हुए हजारों वर्ष बीत गए हैं किन्तु उसके बाद, उसके समान किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं हुई है । 18 अध्याय एवं 700 श्लोकों में रचित तथा भक्ति, ज्ञान, योग एवं निष्कामता आदि से भरपूर यह गीता ग्रन्थ विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयंती मनायी जाती है ।

श्रीमद्भगवद्गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही है ।  गीता जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है और युद्ध जैसे घोर कर्मों में भी निर्लेप रहने की कला सिखाती है । मरने के बाद नहीं, जीते-जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता ! इस साल श्रीमद्भगवद्गीता जयंती अंग्रेजी तारीख 08 दिसंबर को है ।

‘गीता’ में
18 अध्याय हैं,
 700 श्लोक हैं,
94569 शब्द हैं ।
विश्व की 578 से भी अधिक भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है ।

'यह मेरा हृदय है’- ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा है तो वह गीता जी है । गीता मे हृदयं पार्थ । ‘गीता मेरा हृदय है ।’

आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जब फाँसी की सजा दी जाती थी, तब ‘गीता’ के श्लोक बोलते हुए वे हँसते-हँसते फाँसी पर लटक जाते थे ।

श्री वेदव्यास ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरान्त कहा हैः

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सुता ।।

'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्री गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतः करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ विष्णु भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई है,

गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है । इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिश्योक्ति न होगी । गीता का भली भाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने आप हो सकता है । उसके लिए अलग से परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

श्रीमद् भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है । चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करें तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, सरलता, स्नेह, शांति और धर्म आदि दैवी गुण सहज में ही विकसित हो
 उठते हैं ।
अधर्म, अन्याय एवं शोषण  मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है । भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता ग्रन्थ पूरे विश्व में अद्वितीय है ।

गीता माता ने अर्जुन को सशक्त बना दिया। गीता माता अहिंसक पर वार नहीं कराती और हिंसक व्यक्तियों के आगे हमें डरपोक नहीं होने देती।

देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।
न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।
हस्तात्त्याक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।

भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता है तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।

विदेशों में श्री गीताजी का महत्व समझकर स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने लगे हैं, भारत सरकार भी अगर बच्चों एवं देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है तो सभी स्कूलों कॉलेज में गीता अनिवार्य कर देना चाहिए ।

शनिवार, 30 नवंबर 2019

8:27 pm

परमपिता परमात्मा और उनके दिव्य दर्शन



के सी शर्मा*
कलियुग के अन्त में धर्म-ग्लानी अथवा अज्ञान-रात्रि के समय, शिव सृष्टि का कल्याण करने के लिए सबसे  पहले तीन सूक्ष्म देवता ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को रचते है और इस कारण शिव ‘त्रिमूर्ति’ कहलाते है | तीन देवताओं की रचना करने के बाद वह स्वयं इस मनुष्य-लोक में एक साधारण एवं वृद्ध भक्त के तन में अवतरित होते है, जिनका नाम वे ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ रखते है |
प्रजा पिता ब्रह्मा द्वारा ही परमात्मा शिव मनुष्यात्माओं को पिता, शिक्षक तथा सद्गुरु के रूप में मिलते है और सहज गीता ज्ञान तथा सहज राजयोग सिखा कर उनकी सद्गति करते है, अर्थात उन्हें जीवन-मुक्ति देते है |

"शंकर द्वारा कलियुगी सृष्टि का महाविनाश"

कलियुग के अन्त में प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी दैवी सृष्टि की स्थापना के साथ परमपिता परमात्मा शिव पुरानी, आसुरी सृष्टि के महाविनाश की तैयारी भी शुरू करा देते है | परमात्मा शिव शंकर के द्वारा विज्ञान-गर्वित (Science-Proud) तथा विपरीत बुद्धि अमेरिकन लोगों तथा यूरोप-वासियों (यादवों) को प्रेरित कर उन द्वारा ऐटम और हाइड्रोजन बम और मिसाइल (Missiles) तैयार कराते हैं, जिन्हें कि महभारत में ‘मूसल’ तथा ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है | इधर भारत में भी देह-अभिमानी, धर्म-भ्रष्ट तथा विपरीत बुद्धि वाले लोगों (जिन्हें महाभारत की भाषा में ‘कौरव’ कहा गया है) को पारस्परिक युद्ध (Civil War) के लिए प्रेरित होगे |

"विष्णु द्वारा पालना"

विष्णु की चार भुजाओं में से दो भुजाएँ श्री नारायण की और दो भुजाएँ श्री लक्ष्मी की प्रतीक है | ‘शंख’ उनका पवित्र वचन अथवा ज्ञान-घोष की निशानी है, ‘स्वदर्शन चक्र’ आत्मा (स्व) के तथा सृष्टि चक्र के ज्ञान का प्रतीक है, ‘कमल पुष्प’ संसार में रहते हुए अलिप्त तथा पवित्र रहने का सूचक है तथा ‘गदा’ माया पर, अर्थात पाँच विकारों पर विजय का चिन्ह है | अत: मनुष्यात्माओं के सामने विष्णु चतुर्भुज का लक्ष्य रखते हुए परमपिता परमात्मा शिव समझते है कि इन अलंकारों को धारण करने से अर्थात इनके रहस्य को अपने जीवन में उतरने से नर ‘श्री नारायण’ और नारी ‘श्री लक्ष्मी’ पद प्राप्त कर लेती है, अर्थात मनुष्य दो ताजों वाला ‘देवी या देवता’ पद प्राप्त करता है | इन दो ताजों में से एक ताज तो प्रकाश का ताज अर्थात प्रभा-मंडल (Crown of Light) है जो कि पवित्रता व शान्ति का प्रतीक है और दूसरा रत्न-जडित सोने का ताज है जो सम्पति अथवा सुख का अथवा राज्य भाग्य का सूचक है |
इस प्रकार, परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी तथा त्रेतायुगी पवित्र, दैवी सृष्टि (स्वर्ग) की पालना के संस्कार भरते है, जिसके फल-स्वरूप ही सतयुग में श्री नारायण तथा श्री लक्ष्मी (जो कि पूर्व जन्म में प्रजापिता ब्रह्मा और सरस्वती थे) तथा सूर्यवंश के अन्य राजा प्रजा-पालन का कार्य करते है और त्रेतायुग में श्री सीता व श्री राम और अन्य चन्द्रवंशी राजा राज्य करते है |

मालूम रहे कि वर्तमान समय परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा तथा तीनों देवताओं द्वारा उपर्युक्त तीनो कर्तव्य करा रहे है | अब हमारा कर्तव्य है कि परमपिता परमात्मा शिव तथा प्रजापिता ब्रह्मा से अपना आत्मिक सम्बन्ध जोड़कर पवित्र बनने का पुरषार्थ करे व सच्चे वैष्णव बनें | मुक्ति और जीवनमुक्ति के ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार के लिए पूरा पुरुषार्थ करें |

"परमात्मा का दिव्य – अवतरण"

शिव का अर्थ है – ‘कल्याणकारी’ | परमात्मा का यह नाम इसलिए है, वह धर्म-ग्लानि के समय, जब सभी मनुष्य आत्माएं माया (पाँच विकारों) के कारण दुखी, अशान्त, पतित एवं भ्रष्टाचारी बन जाती है तब उनको पुन: पावन तथा सम्पूर्ण सुखी बनाने का कल्याणकारी कर्तव्य करते है | शिव ब्रह्मलोक में निवास करते है और वे कर्म-भ्रष्ट तथा धर्म भ्रष्ट संसार का उद्धार करने के लिए ब्रह्मलोक से नीचे उतर कर एक मनुष्य के शरीर का आधार लेते है | परमात्मा शिव के इस अवतरण अथवा दिव्य एवं अलौकिक जन्म की पुनीत-स्मृति में ही ‘शिव रात्रि’, अर्थात शिवजयंती का त्यौहार मनाया जाता है |
परमात्मा शिव जो साधारण एवं वृद्ध मनुष्य के तन में अवतरित होते है, उसको वे परिवर्तन के बाद ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम देते है | उन्हीं की याद में शिव की प्रतिमा के सामने ही उनका वाहन ‘नन्दी-गण’ दिखाया जाता है | क्योंकि परमात्मा सर्व आत्माओं के माता-पिता है, इसलिए वे किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते बल्कि ब्रह्मा के तन में संनिवेश( प्रवेश) ही उनका दिव्य-जन्म अथवा अवतरण है |
"अजन्मा परमात्मा शिव के दिव्य जन्म की रीति न्यारी"

परमात्मा शिव किसी पुरुष के बीज से अथवा किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते क्योंकि वे तो स्वयं ही सबके माता-पिता है, मनुष्य-सृष्टि के चेतन बीज रूप है और जन्म-मरण तथा कर्म-बन्धन से रहित है | अत: वे एक साधारण मनुष्य के वृद्धावस्था वाले तन में प्रवेश करते है | इसे ही परमात्मा शिव का ‘दिव्य-जन्म’ अथवा ‘अवतरण’ भी कहा जाता है क्योंकि जिस तन में वे प्रवेश करते है वह एक जन्म-मरण तथा कर्म बन्धन के चक्कर में आने वाली मनुष्यात्मा ही का शरीर होता है, वह परमात्मा का ‘अपना’ शरीर नहीं होता |

जब सारी सृष्टि माया (अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि पाँच विकारों) के पंजे में फंस जाती है तब परमपिता परमात्मा शिव, जो कि आवागमन के चक्कर से मुक्त है, मनुष्यात्माओं को पवित्रता, सुख और शान्ति का वरदान देकर माया के पंजे से छुड़ाते है | वे ही सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा देते है तथा सभी आत्माओं को परमधाम में ले जाते है तथा मुक्ति एवं जीवनमुक्ति का वरदान देते है | शिव रात्रि का त्यौहार फाल्गुन मास, जो कि विक्रमी सम्वत का अंतिम मास होता है, में आता है | उस समय कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी होती है और पूर्ण अन्धकार होता है | उसके पश्चात शुक्ल पक्ष का आरम्भ होता हुई और कुछ ही दिनों बाद नया संवत आरम्भ होता है | अत: रात्री की तरह फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी भी आत्माओं को अज्ञान अन्धकार, विकार अथवा आसुरी लक्षणों की पराकाष्ठा के अन्तिम चरण का बोधक है | इसके पश्चात आत्माओं का शुक्ल पक्ष अथवा नया कल्प प्रारम्भ होता है, अर्थात अज्ञान और दुःख के समय का अन्त होकर पवित्र तथा सुख आने का समय शुरू होता है |
परमात्मा शिव अवतरित होकर अपने ज्ञान, योग तथा पवित्रता द्वारा आत्माओं में आध्यात्मिक जागृति उत्पन्न करते है इसी महत्व के फलस्वरूप भक्त लोग शिवरात्रि को जागरण करते है | इस दिन मनुष्य उपवास, व्रत आदि भी रखते है | उपवास (उप-निकट, वास-रहना) का वास्तविक अर्थ है ही परमत्मा के समीप हो जाना | अब परमात्मा से युक्त होने के लिए पवित्रता का व्रत लेना जरूरी है |