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बुधवार, 8 जुलाई 2020

7:41 am

इतिहास-स्मृतिवीर सावरकर की ऐतिहासिक छलांग-के सी शर्मा

अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश ही नहीं, तो विदेश में भी क्रांतिकारियों को तैयार किया। इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। अतः ब्रिटिश शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा, जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके।

पर सावरकर बहुत जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था। 8 जुलाई, 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी। 

अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया। शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था। सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी।

बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़ चुका था। सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं। उसने शोर मचाकर अपने साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं। 

कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए उस बंदरगाह पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी। अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था। उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब तक ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा।

सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी फ्रांसीसी पुलिस को दी। बिना अनुमति किसी दूसरे देश के नागरिकों का फ्रांस की धरती पर उतरना भी अपराध था; पर दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गयी। ब्रिटिश पुलिस वालों ने उन्हें कुछ घूस भी खिला दी। अतः उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष कालेपानी की सजा दी गयी।

अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है। इससे भारत की गुलामी वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी। फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा। हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी; पर सावरकर तो तब तक मुंबई पहुंच चुके थे, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता था।

स्वाधीन भारत में सावरकर के प्रेमियों ने फ्रांस शासन से इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में बंदरगाह के पास एक स्मारक बनाने का आग्रह किया। फ्रांस का शासन तथा मार्सेलिस के महापौर इसके लिए तैयार हैं; पर उनका कहना है कि इसके लिए प्रस्ताव भारत सरकार की ओर से आना चाहिए। दुर्भाग्य की बात यह है कि अब तक शासन ने यह प्रस्ताव नहीं भेजा है।

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

1:18 pm

2 जुलाईसिद्धयोगी स्वामी राम जी का जन्म दिवस पर विशेष-के सी शर्मा


त्यागी और तपस्वियों की भूमि भारत में अनेक तरह के योगी हुए हैं। केवल भारत ही नहीं, तो विश्व के धार्मिक विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों को अपनी यौगिक क्रियाओं से कई बार चमत्कृत कर देने वाले सिद्धयोगी स्वामी राम का नाम असहज योग की परम्परा में शीर्ष पर माना जाता है।

स्वामी राम का जन्म देवभूमि उत्तरांचल के गढ़वाल क्षेत्र में दो जुलाई, 1925 को हुआ था। उत्तरांचल सदा से दिव्य योगियों एवं सन्तों की भूमि रही है। उन्हें देखकर राम की रुचि बचपन से ही योग की ओर हो गयी। इन्होंने विद्यालयीन शिक्षा कहाँ तक पायी, इसकी जानकारी नहीं मिलती; पर इतना सत्य है कि लौकिक शिक्षा के बारे में भी इनका ज्ञान अत्यधिक था।

योग में रुचि होने के कारण इन्होंने अनेक संन्यासियों के पास जाकर योग की कठिन साधना की। व्यक्तिगत प्रयास एवं गुरु कृपा से इन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। उन दिनों भारत तथा विश्व में ब्रिटेन एवं अमरीका आदि यूरोपीय देशों एवं ईसाई धर्म का डंका बज रहा था। वे लोग भारतीय धर्म, अध्यात्म, योग, चिकित्सा शास्त्र तथा अन्य धार्मिक मान्यताओं की हँसी उड़ाते हुए उसे पाखण्ड एवं अन्धविश्वास बताते थे। अतः स्वामी राम ने उनके घर में घुसकर ही उनकी मान्यताओं को तोड़ने का निश्चय किया।

जब स्वामी राम ने विदेश की धरती पर योग शिविर लगाये, तो उनके चमत्कारों की चारों ओर चर्चा होने लगी। जब वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्र के विशेषज्ञों तक उनकी ख्याति पहुँची, तो उन्होंने अपने सामने योग के चमत्कार दिखाने को कहा। स्वामी राम ने इस चुनौती को स्वीकार किया और वैज्ञानिकों को अपने साथ परीक्षण के लिए आधुनिक यन्त्र लाने को भी कहा।

प्रख्यात वैज्ञानिकों एवं उनकी आधुनिक मशीनों के सम्मुख स्वामी राम ने यौगिक क्रियाओं का प्रदर्शन किया। योग द्वारा शरीर का ताप बढ़ाने एवं घटाने, हृदय की गति घटाने और 20 मिनट तक बिल्कुल रोक देने, दूर बैठे अपने भक्त के स्वास्थ्य को ठीक करना आदि को देखकर विदेशी विशेषज्ञ अपना सब ज्ञान और विज्ञान भूल गये। स्वामी राम ने बताया कि शरीर ही सब कुछ नहीं है, अपितु चेतन और अचेतन मस्तिष्क की क्रियाओं का भी मानव जीवन में बहुत महत्व है और इस ज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम बहुत पीछे है।

आगे चलकर स्वामी राम ने विदेश में अनेक अन्तरराष्ट्रीय योग शिविर लगाये तथा आश्रमों की स्थापना की। उन्होंने योग पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं, जिनका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके बाद भी स्वामी जी को अपनी जन्मभूमि भारत और उत्तरांचल से अतीव प्रेम था। वहाँ की निर्धनता तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव को देखकर उन्हें बहुत कष्ट होता था। इसलिए उन्होंने देहरादून जिले के जौलीग्राण्ट ग्राम में एक विशाल चिकित्सालय एवं चिकित्सा विद्यालय की स्थापना की।

इस प्रकल्प के माध्यम से उन्होंने निर्धन जनों को विश्व स्तरीय सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास किया। विश्व भर में फैले स्वामी जी के धनी भक्तों के सहयोग से स्थापित यह चिकित्सालय आज भी उस क्षेत्र की अतुलनीय सेवा कर रहा है। जब स्वामी राम का शरीर थक गया, तो उन्होंने योग साधना द्वारा उसे छोड़ दिया। स्वामी जी भले ही चले गये; पर उनके द्वारा स्थापित ‘हिमालयन अस्पताल’ से उनकी कीर्ति सदा जीवित है।

रविवार, 10 मई 2020

3:57 am

जानिए क्यों अपने काल का सबसे बड़ा युद्ध था महाभारत

हकीकत का आईंना

जानिए,महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था-के सी शर्मा
 

महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था। क्योंकि उस काल में शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।

क्योकि इस युद्ध में भारत, अफगानिस्तान और ईरान तक के समस्त राजा कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े थे, किन्तु एक राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था, वो था दक्षिण के उडुपी का राज्य।

जब उडुपी के राजा युद्ध मे भाग लेने के लिए अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।

उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे, उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा-हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा...... ?

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है, आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है, अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।

इसपर उडुपी नरेश ने कहा- हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।

किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।

इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा- महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है, इस युद्ध में 50लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।

वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।

भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये, इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।

पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया, उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।

जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी, दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।

किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।

इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसप र भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।

अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया- "हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे, किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया, मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।"

इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा-" सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?"

इसपर युधिष्ठिर ने कहा-" श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।"

तब उडुपी नरेश ने कहा हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है, ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।

तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा-" हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे, मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।"

वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक 1000गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे, अर्थात अगर वे 50 मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50000 योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे, उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था, यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।

श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए, ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है, कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है, कर्नाटक के इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में ‌श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया था।
3:54 am

जानिए,आर्मी के पास था बाबा साहेब का घर कई साल खोजने के बाद मध्यप्रदेश में मिला आज बना है आलीशान स्मारक - के सी शर्मा

 भारत का संविधान लिखने वाले बाबा साहेब आंबेडकर की जन्मस्थली को खोजने का किस्सा बहुत रोचक है। सन 1956 में बाबा साहेब का महापरिनिर्वाण  हुआ और इसके बाद 1970 में उनकी जन्मस्थली को खोजने का ख्याल आया। 

 महाराष्ट्र के भंते धर्मशील को एक दिन ख्याल आया कि बाबा साहेब कहां रहते थे। उन्होंने पता करना चाहा तो किसी से जानकारी नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने खुद बाबा साहेब की जन्मस्थली को खोजना शुरू किया। आजादी के 24 साल बाद और बाबा साहेब की निधन के 15 साल बाद उन्हें जन्मस्थली मप्र के महू में मिली। आंबेडकर के पिता सेना मेें थे और उनकी जन्मस्थली सेना की जमीन पर ही थी। वहां उनके पिता का घर था। इसके बाद स्व. भंते धर्मशील ने न सिर्फ आंबेडकर जन्म स्थली की खोज की। बल्कि संघर्ष करते हुए सरकार से 22 हजार स्क्वे. फीट जमीन स्मारक के लिए हासिल की थी।

 अब आंबेडकर जन्म स्थली के पास खाली पड़ी सैन्य भूमि पर बुद्ध विहार, वाचनालय, धर्मशाला व गार्डन निर्माण के लिए 10 साल से प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन जमीन नहीं मिल रही। 

 इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है कि महाराष्ट्र के भंडारा जिले के भंते धर्मशील 1970 में आंबेडकर जन्म स्थली की खोज के लिए निकले थे। उन्होंने लंबी छानबीन के बाद महू में आर्मी में पदस्थ रहे आंबेडकर के पिता रामजी सक्पाल का मकान 1971 में खोजा। जहां बाबा साहेब  ने जन्म लिया था। आंबेडकर सोसायटी के अध्यक्ष भंत संघशील ने बताया कि उस स्थान पर आंबेडकर स्मारक बनाने के लिए उन्होंने डॉ. आंबेडकर मेमोरियल सोसायटी का गठन किया और जमीन हासिल करने के लिए आर्मी व सरकार से वर्षों तक पत्राचार किया। लंबे संघर्ष के बाद 1976 में स्मारक के लिए 2 हजार स्वे. फीट जमीन मिली।  14 अप्रैल 1991 को 100वीं जयंती पर तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने जन्म स्थली पर स्मारक की आधारशीला रखी। जहां आज देशभर से लाखों अनुयायी दर्शन के लिए पहुंच रहे हैं। 

 डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय के डॉ. आरएस कुरील ने बताया कि आज जिस स्मारक पर लाखों अनुयायी आ रहे हैं, उनकी व्यवस्था व सुविधा और स्मारक के विस्तार के लिए 10 साल से जमीन हासिल करने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन सफलता नहीं मिली।  10 साल तक रुका रहा काम आंबेडकर मेमोरियल सोसायटी के कार्यालय सचिव मोहनराव वाकोड़े ने बताया स्मारक का काम 1994 में शुरू हुआ, लेकिन मेहनताने को लेकर इसे बनाने वाले आर्टिकेक्ट ने कोर्ट में केस लगाया। 2007 में प्रदेश सरकार ने आर्किटेक्ट को राशि अदा की।
 इसके बाद 2008 में संगमरमर से आलीशान स्मारक ने आकार लिया।

शुक्रवार, 8 मई 2020

8:07 am

भारत में चार प्रमुख चौसठ-योगिनी मंदिर हैं-के सी शर्मा

भारत में चार प्रमुख चौसठ-योगिनी मंदिर हैं-के सी शर्मा



 दो ओडिशा में तथा दो मध्य प्रदेश में। लेकिन इन सब में मध्य प्रदेश के मुरैना स्तिथ चौसठ योगिनी मंदिर का विशेष महत्तव है। इस मंदिर को गुजरे ज़माने में तांत्रिक विश्वविद्यालय कहा जाता था। उस दौर में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान करके तांत्रिक सिद्धियाँ हासिल करने के लिए तांत्रिकों का जमवाड़ लगा रहता था। मौजूदा समय में भी यहां कुछ लोग तांत्रिक सिद्धियां हासिल करने के लिए यज्ञ करते हैं।
ग्राम पंचायत मितावली, थाना रिठौराकलां, ज़िला मुरैना (मध्य प्रदेश) में यह प्राचीन चौंसठ योगिनी शिव मंदिर है। इसे ‘इकंतेश्वर महादेव मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की ऊंचाई भूमि तल से 300 फीट है। इसका निर्माण तत्कालीन प्रतिहार क्षत्रिय राजाओं ने किया था। यह मंदिर गोलाकार है। इसी गोलाई में बने चौंसठ कमरों में हर एक में एक शिवलिंग स्थापित है। इसके मुख्य परिसर में एक विशाल शिव मंदिर है।
भारतीय पुरातत्व विभाग के मुताबिक़, इस मंदिर को नवीं सदी में बनवाया गया था। कभी हर कमरे में भगवान शिव के साथ देवी योगिनी की मूर्तियां भी थीं, इसलिए इसे चौंसठ योगिनी शिवमंदिर भी कहा जाता है। देवी की कुछ मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं। कुछ मूर्तियां देश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजी गई हैं। तक़रीबन 200 सीढ़ियां चढ़ने के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यह सौ से ज़्यादा पत्थर के खंभों पर टिका है। किसी ज़माने में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान किया जाता था।
यह स्थान ग्वालियर से करीब 40 कि.मी. दूर है। इस स्थान पर पहुंचने के लिए ग्वालियर से मुरैना रोड पर जाना पड़ेगा। मुरैना से पहले करह बाबा से या फिर मालनपुर रोड से पढ़ावली पहुंचा जा सकता है। पढ़ावली ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यही वह शिवमंदिर है, जिसको आधार मानकर ब्रिटिश वास्तुविद् सर एडविन लुटियंस ने संसद भवन बनाया।

गुरुवार, 7 मई 2020

5:33 am

7 मईविश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की जन्म जयंती पर विशेष-के सी शर्मा

बंगला और अंग्रेजी साहित्य के माध्यम से भारत को विश्व रंगमंच पर अमिट स्थान दिलाने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म सात मई, 1861 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदादेवी था। बचपन से ही काव्य में रुचि रखने वाले इस प्रतिभाशाली बालक को देखकर कौन कह सकता था कि एक दिन विश्वविख्यात नोबेल पुरस्कार जीतकर यह कवि भारत का नाम दुनिया में उज्जवल करेगा।

रवीन्द्रनाथ के परिवार में प्रायः सभी लोग विद्वान थे। इसका प्रभाव उन पर भी पड़ा। उन्होंने लेखन की प्रायः सभी विधाओं में साहित्य की रचना की। एक ओर वे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि में सिद्धहस्त थे, तो दूसरी ओर वे उच्च कोटि के चित्रकार, संगीतकार, दार्शनिक व शिक्षाशास्त्री भी थे। उन्होंने अपनी सभी कविताओं को शास्त्रीय संगीत में निबद्ध भी किया है। सोनार तरी, पुरवी, दि साइकिल आॅफ स्प्रिंग, दि ईवनिंग सांग्स और मार्निंग सांग्स उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनके लेखन का विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ है तथा आज भी लगातार उन पर काम हो रहा है।

1913 में गीतों की पुस्तक ‘गीतांजलि’ पर उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। आज भी ज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा, कला, साहित्य आदि क्षेत्रों में यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार माना जाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले भारतीय थे, जिन्हें इस सम्मान से अलंकृत किया गया। उन्होंने गोरा, राजरानी, घरे-बाहिरे, विनोदिनी जैसे प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखे। चित्रा उनका प्रसिद्ध गीतनाट्य है। उनकी कहानी काबुलीवाला पर इसी नाम से एक फिल्म भी बनी, जिसे देखकर आज भी दर्शकों की आँखें भीग जाती हैं।

रवीन्द्रनाथ शिक्षा को देश के विकास का एक प्रमुख साधन मानते थे। इस हेतु उन्होंने 1901 में बोलपुर में ‘शान्ति निकेतन’ की नींव रखी। यहाँ प्राचीन भारतीय परम्पराओं के साथ ही पश्चिमी शिक्षा का तालमेल किया गया है। नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद 1921 में उन्होंने शान्ति निकेतन में ही ‘विश्व भारती विश्वविद्यालय’ की स्थापना की। इसमें विश्व भर के छात्र पढ़ने आते थे। आज भी यहाँ के प्राकृतिक और शान्त वातावरण में पढ़ने वाले छात्रों में सहज ही कला के संस्कार विकसित हो जाते हंै।

विश्व भारती की स्थापना के बाद उन्होंने देश-विदेश का सघन प्रवास किया। वे चाहते थे कि इस विद्यालय मंे न केवल विश्व भर के छात्र अपितु विद्वान् अध्यापक भी आयें, जिससे उनके ज्ञान का सबको लाभ मिल सके। उनका यह प्रयास सफल रहा और आज भी वहाँ यह परम्परा विद्यमान है। उनके जीवनकाल में ही वहाँ कला भवन, संगीत भवन, शिक्षा भवन, श्रीनिकेतन, चीन भवन, शिल्प भवन और हिन्दी भवन की स्थापना हो गयी थी। 1915 में अंग्रेजी शासन ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया; पर 1919 में जलियाँवाला बाग कांड के विरोध में उन्होंने इसे वापस कर दिया। 

भारत का वर्तमान राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता..’ उनका ही रचा हुआ है। यद्यपि कुछ लोगों का कहना है कि यह जार्ज पंचम की स्तुति में रचा गया था। गांधी जी उन्हें सम्मानपूर्वक ‘गुरुदेव’ कहकर पुकारते थे। जीवन भर साहित्य की सेवा और साधना करते हुए 1941 में कोलकाता में ही रवीन्द्रनाथ टैगोर का देहान्त हो गया।

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

10:20 pm

प्रथम क्रांतिकारी शहीद राजा विजय सिंह -के सी शर्मा



आइए आपको बताते है कौन थे क्रान्तिकारी राजा विजय सिंह गुर्जर!

सामान्यतः भारत में स्वाधीनता के संघर्ष को 1857 से प्रारम्भ माना जाता है; पर सत्य यह है कि जब से विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण भारत पर होने लगे, तब से ही यह संघर्ष प्रारम्भ हो गया था।

भारत के स्वाभिमानी वीरों ने मुगल, तुर्क, हूण, शक, पठान, बलोच और पुर्तगालियों से लेकर अंग्रेजों तक को धूल चटाई है।

 ऐसे ही एक वीर थे राजा विजय सिंह।
उत्तराखंड राज्य में हरिद्वार एक विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल है।
यहां पर ही गंगा पहाड़ों का आश्रय छोड़कर मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है।
इस जिले में एक गांव है कुंजा बहादुरपुर।
यहां के बहादुर राजा विजय सिंह ने 1857 से बहुत पहले 1824 में ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया था।

कुंजा बहादुरपुर उन दिनों लंढौरा रियासत का एक भाग था।
इसमें उस समय 44 गांव आते थे। 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह के देहांत के बाद रियासत की बागडोर उनके पुत्र राजा विजय सिंह ने संभाली।

 उन दिनों  प्रायः सभी भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे; पर गंगापुत्र राजा विजय सिंह किसी और ही मिट्टी के बने थे। राजा विजय सिंह ने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों के आगे सिर झुकाने की बजाय उन्हें अपनी रियासत से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया।

वीर सेनापति कल्याण सिंह भी राजा के दाहिने हाथ थे। 1822 ई. में सेनापति के सुझाव पर राजा विजय सिंह ने अपनी जनता को आदेश दिया कि वे अंग्रेजों को मालगुजारी न दें, ब्रिटिश राज्य के प्रतीक सभी चिन्हों को हटा दें, तहसील के खजानों को अपने कब्जे में कर लें तथा जेल से सभी बन्दियों को छुड़ा लें।
जनता भी अपने राजा और सेनापति की ही तरह देशाभिमानी थी।
 उन्होंने इन आदेशों का पालन करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।

अंग्रेजों ने सोचा कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो सब ओर विद्रोह फैल जाएगा।
अतः सबसे पहले उन्होंने राजा विजय सिंह को समझा बुझाकर उसके सम्मुख सन्धि का प्रस्ताव रखा; पर स्वाभिमानी राजा ने इसे ठुकरा दिया।
अब दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी।
सात सितम्बर, 1824 की रात को अंग्रेजों ने गांव कुंजा बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। उनकी सेना में अनेक युद्ध लड़ चुकी गोरखा रेजिमेंट की नौवीं बटालियन भी शामिल थी।
 राजा विजय सिंह और सेनापति कल्याण सिंह जानते थे कि अंग्रेजों के पास सेना बहुत अधिक है तथा उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी आधुनिक प्रकार के हैं; पर उन्होंने झुकने की बजाय संघर्ष करने का निर्णय लिया।
राजा विजय सिंह के नेतृत्व में गांव के वीर युवकों ने कई दिन तक मोर्चा लिया; पर अंततः तीन अक्तूबर, 1824 को राजा को युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त हुई।

इससे अंग्रेज सेना मनमानी पर उतर आयी।
उन्होंने गांव में जबरदस्त मारकाट मचाते हुए महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े.. किसी पर दया नहीं दिखाई।
उन्होंने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया।
गांव में स्थित सुनहरा केवट वृक्ष पर लटका कर एक ही दिन में 152 लोगों को फांसी दे दी गयी। इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।

कैसा आश्चर्य है कि दो-चार दिन की जेल काटने वालों को स्वाधीनता सेनानी प्रमाण पत्र और पेंशन दी गयी; पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले राजा विजय सिंह और कुंजा बहादुरपुर के बहादुरों को कोई याद भी नहीं करता।

भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे।
जबकि ब्रिटिश सेना के पास उस समय की आधुनिक रायफल (303 बोर) और कारबाइने थी। इस पर भी भारतीय बडी बहादुरी से लडे, और उन्हौनें आखिरी सांस तक अंग्रेजो का मुकाबला किया।
ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी अमरता को प्राप्त 40 गिरफ्तार किये गये।
 लेकिन वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा  ओर युद्व के बाद उन्हौने कंुजा के किले की दिवारों को भी गिरा दिया।

 ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुँची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह काा सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गयें।

ये तोपे देहरादून के परेडस्थल पर रख दी गयी।
भारतीयों को आंतकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याणसिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्व की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी। कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न दबवाया गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। आज आज़ादी के उस महानायक को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनके यशगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प आज पूरा कुंजा गांव दोहराता है।