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Saturday, 23 November 2019

07:08

आखिर अंतर रह ही गया एक कहानी



के सी शर्मा*

 बचपन में जब हम रेल की सवारी  करते थे, माँ घर से खाना बनाकर ले जाती थी, पर रेल में कुछ लोगों को जब खाना खरीद कर खाते देखते, तब बड़ा मन करता था कि हम भी खरीद कर खाएँ!
पिताजी ने समझाया- ये हमारे बस का नहीं! ये तो अमीर लोग हैं जो इस तरह पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं!
                  बड़े होकर देखा, जब हम खाना खरीद कर खा रहे हैं, तो "स्वास्थ सचेतन के लिए", वो लोग घर का भोजन ले जा रहे हैं...!
आखिर अंतर रह ही गया...!
बचपन में जब हम सूती कपड़े पहनते थे, तब वो लोग टेरीलीन पहनते थे! बड़ा मन करता था, पर पिताजी कहते- हम इतना खर्च नहीं कर सकते! 
             बड़े होकर जब हम टेरीलीन पहने लगे, तब वो लोग सूती कपड़े पहनने लगे! सूती कपड़े महँगे हो गए! हम अब उतने खर्च नहीं कर सकते थे!

*आखिर अंतर रह ही गया...*

 बचपन में जब खेलते-खेलते हमारा पतलून घुटनों के पास से फट जाता, माँ बड़ी कारीगरी से उसे रफू कर देती, और हम खुश हो जाते थे। बस उठते-बैठते अपने हाथों से घुटनों के पास का वो रफू वाला हिस्सा ढँक लेते थे!
                  बड़े होकर देखा वो लोग घुटनों के पास फटे पतलून महँगे दामों  में बड़े दुकानों से खरीदकर पहन रहे हैं!
आखिर अंतर रह ही गया...
 बचपन में हम साईकिल बड़ी मुश्किल से पाते, तब वे स्कूटर पर जाते! जब हम स्कूटर खरीदे, वो कार की सवारी करने लगे और जबतक हम मारुति खरीदे, वो बीएमडब्लू पर जाते दिखे!
और हम जब रिटायरमेन्ट का पैसा लगाकर  BMW खरीदे, अंतर को मिटाने के लिए, तो वो साईकिलिंग करते नज़र आए, स्वास्थ्य के लिए।

    *आखिरअंतर रह ही गया...*

हर हाल में हर समय दो लोगो में "अंतर" रह ही जाता है।
"अंतर" सतत है, सनातन है,
अतः सदा सर्वदा रहेगा।
कभी भी दो व्यक्ति और दो परिस्थितियां एक जैसी नहीं होतीं।  कहीं ऐसा न हो कल की सोचते-सोचते आज को ही खो दें और फिर कल इस आज को याद करें।
इसलिए जिस हाल में हैं... जैसे हैं... प्रसन्न रहें।

Wednesday, 20 November 2019

07:51

परमात्मा की खोज एक कहानी



के सी शर्मा*
सुना है कि कोलरेडो में जब सबसे पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारा अमेरिका दौड़ पड़ा कोलरेडो की तरफ।खबरें आईं कि जरा सा खेत खरीद लो और सोना मिल जाए। लोगों ने जमीनें खरीद डालीं।

एक करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति लगाकर एक पूरी पहाड़ी ही खरीद ली।

बड़े यंत्र लगाए।  लोगॊ को लगा दिया खेतों में सोना खोजने को , बड़े यंत्र लाया था, बड़ी खुदाई की, बड़ी खुदाई की। लेकिन सोने का कोई पता न चला।

फिर घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई। सब कुछ  दांव पर लगा दिया था। फिर वह बहुत घबड़ा गया। फिर उसने घर के लोगों से कहा कि यह तो हम मर गए, सारी संपत्ति दांव पर लगा दी है और सोने की कोई खबर नहीं है!

फिर उसने इश्तहार निकाला कि मैं पूरी पहाड़ी बेचना चाहता हूं मय यंत्रों के, खुदाई का सारा सामान साथ है।

घर के लोगों ने कहा, कौन खरीदेगा? सबमें खबर हो गई है कि वह पहाड़ बिलकुल खाली है, और उसमें लाखों रुपए खराब हो गए हैं, अब कौन पागल होगा?

लेकिन उस आदमी ने कहा कि कोई न कोई हो भी सकता है।

एक खरीददार मिल गया। बेचने वाले को बेचते वक्त भी मन में हुआ कि उससे कह दें कि पागलपन मत करो; क्योंकि मैं मर गया हूं। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाया कहने की, क्योंकि अगर वह चूक जाए, न खरीदे, तो फिर क्या होगा? बेच दिया।

बेचने के बाद कहा कि आप भी अजीब पागल मालूम होते हैं; हम तो बरबाद होकर बेच रहे हैं! पर उस आदमी ने कहा, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं; जहां तक तुमने खोदा है वहां तक सोना न हो, लेकिन आगे हो सकता है। और जहां तुमने नहीं खोदा है, वहां नहीं होगा, यह तो तुम भी नहीं कह सकते। उसने कहा, यह तो मैं भी नहीं कह सकता।

और आश्चर्य—कभी—कभी ऐसे आश्चर्य घटते हैं— *पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई। वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया, क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था।वह उस आदमी से मिलने भी गया। और उसने कहा, देखो भाग्य!

उस आदमी ने कहा, "भाग्य नहीं, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही हार गए। एक फीट और खोद लेते तो शायद !"

हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है। न मालूम कितने लोग हैं जो खोजते हैं परमात्मा को, लेकिन पूरा नहीं खोजते, अधूरा खोजते हैं; ऊपर—ऊपर खोजते हैं और लौट जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं। और कई बार तो  साफ दिखाई पड़ता है कि बहुत पास है फ़िर भी नहीं रुकते ! अभी बात घट जाती; यह तो वापस लौट पड़ा।
प्रभु कॊ पाना है तो भक्ति पथ पर सयम और सहनशीलता  बहुत जरुरी है!!