जानिए क्या थी वीर सावरकर की सोच और उनके सपने



 टैप न्यूज़ इंडिया से के सी शर्मा की रिपोर्ट
सावरकर कहते थे ''मेरे सपनों का भारत एक लोकतांत्रिक राज्य होगा जहां भले ही लोग भिन्न -भिन्न मत, पूजा पद्धति रंग एवं जाति के हों परंतु इन सबके साथ कोई भेद नहीं होगा सभी के साथ समता पूर्ण व्यवहार किया जाएगा''
कल समाचार पढ़ा कि वर्तमान सरकार स्वतंत्रता सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रतन देने जा रही हैं, ये पढ़कर मन में बड़ा हर्ष हुआ की आज़ादी के बाद कम से कम किसी को तो सावरकर के बलिदान और समर्पण की याद आई । लेकिन वही देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता का यह कहना कि अगर सावरकर को भारत रत्न देना भाजपा सरकार ने स्वीकार किया तो “भारत को भगवान ही बचा सकता है” इस प्रकार का मानस जिस पार्टी का है हमें लगता हैं उनका भगवान ही मालिक है। ये वही कांग्रेस पार्टी हैं जिसने बाबा साहब अम्बेडकर के तेल चित्र को संसद परिसर में न लगने देने के एवज में कहा था कि अभी संसद के केंद्रीय कक्ष में इस चित्र के लगाने की जगह नहीं हैं, बाबा साहब के मृत्यु के बाद लम्बा अरसा लग गया उनको भारत रत्न मिलने में क्या इस देश के लिए उनका योगदान कम था । वही कांग्रेस नेताओं को उनके मरणोपरांत ही भारत रत्न दिया गया । देश के सर्वोच्च सम्मान को लेकर बहस और सावरकर को लेकर बहस यह कुछ अजीब सी बात हैं । वीर विनायक दामोदर सावरकर देश के लड़ाई में एक बड़े हस्ताक्षर के रूप में सदैव देश के लोगों के मानस में जीवित रहेंगे, उनके द्वारा आज़ादी के संग्राम में किए गए योगदान को क्या कभी भुलाया जा सकता हैं । सावरकर जहां अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष करने में अगुवा थे जिसके लिए उनको अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा आजीवन कारावास की सज़ा भी दी गई , वही दूसरी तरफ़ सावरकर समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष कर रहे थे। सावरकर एक लम्बे अंतराल तक पोर्ट बल्येर की जेल में काला पानी की सज़ा में रहे ये अवधि 1911 से लेकर 1921 तक उसके बाद 3 वर्ष रत्नागिरी की जेल में रहे फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उनको नजबंद रखा । सबसे महत्वपूर्ण यह है की महात्मा गांधी ने कई बार सावरकर को रत्नागिरी जेल में स्थानांतरित किया जाने और उनकी सज़ा माफ़ करने के लिए अंग्रेजी सरकार से आग्रह किया था। सावरकर अपनी लंदन में पढ़ाई के दौरान ही कई क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ चुके थे अभिनव भारत का जन्म वही हुआ था वही पर तीन अंग्रेज़ी प्रशासकों को मारने का षड्यंत्र किया गया इसी के जुर्म में सावरकर को काला पानी की सज़ा हुई । सावरकर द्वारा लिखी पुस्तक “1857 भारत का स्वतंत्रता संग्राम” इस पुस्तक को अंग्रेज़ी सरकार ने भारत और ब्रिटेन में प्रतिबंधित कर दिया था । सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को साथ -साथ लेकर चलने और आज़ादी की लड़ाई भी लड़ने का निर्णय सावरकर के द्वारा लिया गया यह क़दम स्वयं में एक क्रांतिकारी प्रयास था।

सावरकर जितनी शिद्दत से अंग्रेजी शासन की जंजीरों को तोड़ फेंकने के लिए प्रयासरत थे उतनी ही मेहनत से वे अपने समाज में प्रचलित सप्त-निरोधों या प्रतिबंधों ("सप्त-बेड्या" या सात हथकड़ियां) को तोड़ने के लिए कर रहे थे. ये प्रतिबंध और इनके प्रतिकार के लिए सावरकर की सोच इस प्रकार थी:

1. वेदोक्तबंदी – वेदों पर सभी हिंदुओं का समान अधिकार और पहुंच हो

2. व्यवसायबंदी – सावरकर चाहते थे कि बिना जातिबंधन के सभी व्यक्तियों को वह पेशा या जीवन-वृत्ति अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जिसके लिए वह उपयुक्त हों. किसी पुरुष या स्त्री को कोई पेशा अपनाने से इस वजह से नहीं रोका जाना चाहिए कि वह किसी जाति विशेष में नहीं पैदा नहीं हुआ या हुई है.

3. स्पर्शबंदी - केवल उन लोगों को अछूत माना जाना चाहिए जिनका स्पर्श स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सावरकर का विचार था कि जातिगत अस्पृश्यता को समाप्त करना होगा क्योंकि यह मानवता पर एक कलंक है और इसका आधार केवल पौराणिक आख्यान हैं.

4.समुद्रबंदी – विदेश यात्रा करने वालों का सामुदायिक बहिष्कार नहीं होना चाहिए.

5.शुद्धिबंदी - जिन लोगों ने अतीत में कभी हिंदू धर्म को त्याग दिया था या जो किसी अन्य धर्म में पैदा हुए हों, उन्हें हिंदू धर्म में वापस आने देना चाहिए.

6. रोटीबंदी- सावरकर ने इस विचार का उपहास किया कि किसी विशेष प्रकार का भोजन करने से धर्म का नुकसान होता है. उनका मत था कि 'धर्म लोगों के पेट में नहीं, हृदय में रहता है.'

1929 में पूर्वास्पृश्य परिषद, मालवा द्वारा यज्ञोपवीत वितरण एवं वेदपाठ अधिकार दान का आयोजन किया गया वह सावरकर ने सभी को संस्कार का अधिकार देने की बात कही। उनका का एक विश्वास था कि भारत की वर्षों की गुलामी के पीछे एक मात्र कारण था तो वह था भारत के हिंदू समाज का जाति आदि में विभाजन। इसलिए हिंदू समाज संगठित होना चाहिए। इतने समर्पण के बाद भी सावरकर को अभी तक भारत रत्न न देना राजनीतिक अस्पृश्यता का जीता जागता उदाहरण हैं।