14 नवंबर बाल दिवस पर जाने ऐसे वीर बालकों की कहानी जिन्होंने बदल दिया इतिहास



हिंदू धर्म ग्रंथों में ऐसे बच्चों की कथाएं हैं जिन्होंने कम उम्र में ही बड़े काम किए हैं। जिनसे कुछ न कुछ शिक्षा मिलती है। प्रहल्लाद, ध्रुव, एकलव्य और आरूणि जैसे अन्य बच्चों की कथाओं से पता चलता है कि इन्होंने कुछ ऐसे काम किए, जिन्हें करना किसी के बस में नहीं था, लेकिन अपनी ईमानदारी, निष्ठा व समर्पण के बल पर उन्होंने मुश्किल काम भी बहुत आसानी से कर दिए।

भक्त प्रह्लाद

बालक प्रह्लाद की कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु दैत्यों के राजा थे। वह भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था, परंतु प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब यह बात हिरण्यकश्यपु को पता चली तो उसने प्रह्लाद पर अनेक अत्याचार किए, लेकिन फिर भी प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति कम न हुई। अंत में स्वयं भगवान विष्णु प्रह्लाद की रक्षा के लिए नृसिंह अवतार लेकर प्रकट हुए। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया और प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठा कर प्रेम किया।

बालक ध्रुव

श्रीमद्भागवत में बालक ध्रुव की कथा है। इसके अनुसार, ध्रुव के पिता का नाम उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं। सुनीति और सुरुचि। ध्रुव सुनीति का पुत्र था। एक बार सुरुचि ने बालक ध्रुव को यह कहकर राजा उत्तानपाद की गोद से उतार दिया कि मेरे गर्भ से पैदा होने वाला ही गोद और सिंहासन का अधिकारी है। बालक ध्रुव अपनी मां सुनीति के पास पहुंचा। मां ने उसे भगवान की भक्ति के माध्यम से ही लोक-परलोक के सुख पाने का रास्ता सूझाया।
फिर ध्रुव ने घर छोड़ दिया और वन में देवर्षि नारद की कृपा से ऊं नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र की दीक्षा ली। यमुना नदी के किनारे मधुवन में बालक ध्रुव ने तप किया। इतने छोटे बालक की तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु ने बालक ध्रुव को ध्रुवलोक प्रदान किया। आकाश में दिखाई देने वाला ध्रुव तारा बालक ध्रुव का ही प्रतीक है।

गुरुभक्त एकलव्य

एकलव्य की कथा महाभारत में है। उसके अनुसार, एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने गया था, लेकिन राजवंश का न होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाकर उसे गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया। एक बार गुरु द्रोणाचार्य के साथ सभी राजकुमार शिकार के लिए वन में गए। वहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। अभ्यास के दौरान कुत्ते के भौंकने पर एकलव्य ने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। जब द्रोणाचार्य व राजकुमारों ने कुत्ते को देखा तो उस धनुर्धर को ढूंढने लगे, जिसने इतनी कुशलता से बाण चलाए थे। एकलव्य को ढूंढने पर द्रोणाचार्य ने उससे उसके गुरु के बारे में पूछा। एकलव्य ने बताया कि उसने प्रतिमा के रूप में ही द्रोणाचार्य को अपना गुरु माना है। तब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपने अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया।

मार्कण्डेय ऋषि

ग्रंथों के अनुसार, मार्कण्डेय ऋषि अमर हैं। आठ अमर लोगों में मार्कण्डेय ऋषि का भी नाम आता है। इनके पिता मर्कण्डु ऋषि थे। जब मर्कण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और शिवजी से पुत्र मांगा। शिवजी ने पूछा कि उन्हें गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहिए या गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र। तब मर्कण्डु ऋषि ने अल्पायु और गुणी पुत्र चाहा। भगवान शिव ने उन्हें पुत्र का वरदान दिया। उनके पुत्र मार्कंडेय हुए। मार्कंडेय 16 साल के होने पर अपनी मृत्यु के बारे में जानकर वे विचलित नहीं हुए और शिव भक्ति में लीन हो गए। इस दौरान सप्तऋषियों की सहायता से ब्रह्मदेव से उनको महामृत्युंजय मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र के प्रभाव से स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए और मार्कण्डेय ऋषि को यमराज से बचाया। इसके बाद बालक मार्कण्डेय की भक्ति देखकर भगवान शिव ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया।

गुरुभक्त उपमन्यु

महाभारत के अनुसार, गुरु आयोदधौम्य के एक शिष्य का नाम उपमन्यु था। एक दिन गुरु ने उससे पूछा कि तुम अन्य शिष्यों से मोटे और बलवान दिख रहे हो। क्या खाते हो? तब उसने बताया कि मैं भिक्षा मांगकर ग्रहण करता हूं। गुरु ने कहा कि मुझसे पूछे बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। उपमन्यु ने गुरुजी की बात मान ली। इसके बाद गुरुजी ने उसे अन्य चीजें भी खाने के लिए मना कर दिया। फिर एक दिन भूख लगने पर उपमन्यु ने आकड़े के पत्ते खा लिए। जिससे वो अंधा हो गया और कुएं में गिर गया। गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढने वन गए।वह कुएं में मिला तो गुरुजी के पुछने पर उसने सब सच बताया। फिर गुरु आयोदधौम्य ने उपमन्यु को देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार की स्तुति करने को कहा। प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार ने उपमन्यु को स्वस्थ्य होने के लिए एक फल दिया लेकिन उपमन्यु ने बिना अपने गुरु से पुछे नहीं खाया। उससे प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार ने उसे पहले की तरह स्वस्थ होने का वरदान दिया, जिससे आंखों की रोशनी लौट आई और उसे गुरु के आशीर्वाद से वेद और शास्त्रों का ज्ञान मिला।

गुरुभक्त आरुणि

महाभारत के अनुसार आयोदधौम्य ऋषि के एक शिष्य का नाम आरुणि था। आरुणि अपने गुरु की हर आज्ञा का पालन करता था। एक दिन गुरुजी ने उसे खेत की मेढ़ बांधने के लिए भेजा। आरुणि खेत पर गया और मेढ़ बांधने का प्रयास करने लगा। जब वह खेत की मेढ़ नहीं बांध पाया तो खुद लेट गया ताकि पानी खेत के अंदर न आ सके। आरुणि आश्रम नहीं लौटा तो गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ खेत तक आ गए। उन्होंने आरुणि को आवाज लगाई तो वो उठकर खड़ा हो गया। फिर जब पूरी बात गुरु को पता चली तो आरुणि की गुरुभक्ति देखकर गुरु आयोदधौम्य ने सारे वेद और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो जाने का आशीर्वाद दिया।

परमज्ञानी अष्टावक्र
प्राचीन काल में कहोड नामक एक ब्राह्मण और उनकी पत्नी सुजाता थीं। सुजाता गर्भवती हुई। एक दिन जब कहोड वेदपाठ कर रहे थे, तभी गर्भ में स्थित शिशु बोला - पिताजी। आप जो वेदपाठ करते हैं वो ठीक से नहीं होता। इस बात पर कहोड क्रोधित होकर बोले कि- तू पेट में ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें करता है, इसलिए तू आठ स्थानों से टेढ़ा उत्पन्न होगा। कुछ दिन बाद कहोड राजा जनक के वहां बंदी नामक विद्वान से वे शास्त्रार्थ में हार गए। नियमानुसार उन्हें जल में डूबा दिया। अष्टावक्र का जन्म हुआ तो उसकी माता ने उसे कुछ नहीं बताया। जब अष्टावक्र 12 वर्ष का हुआ, तब उसे पिता के बारे पता चला। अष्टावक्र भी राजा के दरबार में शास्त्रार्थ करने गया। यहां अष्टावक्र और उस विद्वान के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें अष्टावक्र ने उसे पराजित कर दिया। अष्टावक्र ने कहा कि नियमानुसार बंदी को भी जल में डूबा देना चाहिए। तब बंदी ने बताया कि वह जल के स्वामी वरुणदेव का पुत्र है। उसने जितने भी विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराकर जल में डुबाया है, वे सभी वरुण लोक में हैं। उसी समय जल में डूबे हुए सभी ब्राह्मण पुन: बाहर आ गए। अष्टावक्र के पिता कहोड भी जल से निकल आए। अष्टावक्र के विषय में जानकर उन्हें बहुत प्रसन्न हुई और पिता के आशीर्वाद से अष्टावक्र का शरीर सीधा हो गया।

आस्तिक
महाभारत के अनुसार जब राजा जनमेजय को पता चला कि उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने पर हुई थी तो उन्होंने सर्प यज्ञ करने का निर्णय लिया। उस यज्ञ में दूर-दूर से भयानक सर्प आकर गिरने लगे। जब यह बात नागराज वासुकि को पता चली तो उन्होंने आस्तिक से इस यज्ञ को रोकने के लिए निवेदन किया। क्योंकि आस्तिक की माता नागराज वासुकि की बहन थी। आस्तिक जरत्कारु ऋषि की संतान थे। आस्तिक यज्ञ स्थल पर जाकर ज्ञान की बातें करने लगे, जिससे प्रसन्न होकर राजा जनमेजय ने आस्तिक को वरदान मांगने के लिए कहा, तब आस्तिक ने राजा से सर्प यज्ञ बंद करने के लिए निवेदन किया। राजा जनमेजय ने पहले तो ऐसा करने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में वहां उपस्थित ब्राह्मणों के कहने पर उन्होंने सर्प यज्ञ रोक दिया और आस्तिक की प्रशंसा की।