19 नवंबर हमारे रियल हीरो सिंधु रत्न ठाकुर दास टंडन जी के जन्म दिवस पर विशेष


के सी शर्मा की रिपोर्ट

राजस्थान में संघ के काम में अपना जीवन गलाने वाले श्री ठाकुरदास टंडन का जन्म 19 नवम्बर, 1927 को हैदराबाद (सिन्ध) में हुआ था। इनके पिता श्री टहलराम जी वहां लकड़ी के बड़े व्यापारी थी। इस कारण इनका बचपन सुख-सुविधाओं में बीता। ठाकुरदास जी छह भाइयों में सबसे छोटे थे।

जब हैदराबाद में शाखा प्रारम्भ हुई, तो इनके बड़े भाई और फिर ये भी स्वयंसेवक बने। 1944 में सिन्ध के प्रसिद्ध विद्यालय नवलराय हीरानंद अकादमी से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर इण्टर साइंस में प्रवेश लिया। संस्कृत के प्रति रुचि होने के कारण इन्होंने उसकी शिक्षा भी प्राप्त की।

उन दिनों देश विभाजन की चर्चा गरम थीं। मुस्लिम गुंडे खुलेआम हिन्दुओं की हत्या कर रहे थे। लोगों की आशा का केन्द्र केवल संघ के स्वयंसेवक थे। 1945 में हैदराबाद किले में लगने वाली बाल शाखा पर मुसलमानों ने आक्रमण किया। इसमें नेणूराम शर्मा नामक स्वयंसेवक मारा गया। उस आक्रमण के प्रतिकार में ठाकुरदास जी को भी काफी चोटें आयीं; पर इससे भयभीत होने की बजाय उनके मन में संघ कार्य को तीव्र करने की आग और धधक उठी।

1946 में उन्होंने मेरठ से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वर्ग के बीच ही उन्हें माता जी के निधन का समाचार मिला; पर उन्होंने प्रशिक्षण को बीच में छोड़ना उचित नहीं समझा। इसके बाद 1947 और 1953 में उन्होंने द्वितीय और तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण पाकर 1946 में वे प्रचारक बन गये। देश विभाजन के बाद वे अजमेर में प्रचारक रहे। इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान ही रहा।

1949 से 1983 तक वे क्रमशः उदयपुर, बीकानेर, कोटा, जोधपुर तथा अजमेर में विभाग प्रचारक रहे। एक वर्ष उदयपुर संभाग प्रचारक रहने के बाद 1984 में उन्हें सेवा भारती के कार्य में भेजा गया। आपातकाल के बाद संघ ने सेवा का क्षेत्र में कदम बढ़ाये थे। उसे समर्थ बनाने के लिए अनुभवी और धैर्य से काम करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। ठाकुरदास जी में ये दोनों गुण भरपूर मात्रा में थे। राजस्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित होने के कारण उन्होंने थोड़े ही समय में सेवा कार्यों का सबल तन्त्र खड़ा कर दिया।

देश विभाजन के समय पूरा सिन्ध प्रान्त पाकिस्तान में चला गया। वहां से आये लाखों लोग भारत के विभिन्न भागों में बस गयेे। ऐसे लोगों को संगठित करने, उनकी भाषा एवं संस्कारों को जीवित रखने के लिए स्वयंसेवकों ने ‘भारतीय सिन्धु सभा’ का गठन किया। ठाकुरदास जी ने 10 वर्ष तक राजस्थान में इस कार्य को भी संभाला। उनके योगदान को देखते हुए राजस्थान सिन्धी अकादमी ने उन्हें 1995 में ‘सिन्धु रत्न’ की उपाधि से विभूषित किया।

ठाकुरदास जी को सभी लोग ‘भाऊ जी’ कहते थे। वे होम्योपैथी के सफल चिकित्सक भी थे; पर अपनी इस योग्यता का उपयोग उन्होंने सम्पर्क बढ़ाने में ही किया। सामान्य वार्तालाप की शैली में होने वाले उनके बौद्धिक से संघ का विचार आसानी से सबके गले उतर जाता था। उनका पत्र-व्यवहार का क्षेत्र भी बहुत व्यापक था। उनके अक्षर भी मोती की तरह सुंदर होते थे।

ठाकुरदास जी खानपान के शौकीन थे; पर बांटकर और मिलजुल कर खाने में ही उन्हें आनंद आता था। वृद्धावस्था के कारण 1984 के बाद उन पर कोई विशेष दायित्व नहीं रहा। फिर भी वे कुछ न कुछ काम करते रहते थे। 10 मई, 1996 को इस तपस्वी प्रचारक का निधन हुआ।