4 नवंबर रेलवे हिंदी समय सारणी के निर्माता मुकुंद दास प्रभाकर जी की पुण्यतिथि पर विशेष




के सी शर्मा भारत में रेल का प्रारम्भ अंग्रेजी शासनकाल में हुआ था। अतः उसकी समय सारिणी भी अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुई। हिन्दीप्रेमियों ने शासन और रेल विभाग से बहुत आग्रह किया कि यह हिन्दी में भी प्रकाशित होनी चाहिए; पर उन्हें यह सुनने का अवकाश कहाँ था। अन्ततः हिन्दी के भक्त बाबू मुकुन्ददास गुप्ता ‘प्रभाकर’ ने यह काम अपने कन्धे पर लिया और 15 अगस्त, 1927 को पहली बार हिन्दी समय सारिणी प्रकाशित हो गयी।

प्रभाकर जी का जन्म 1901 में काशी में हुआ था। पिताजी की इच्छा थी कि वे मुनीम बनें, इसलिए उन्हें इसकी शिक्षा लेने के लिए भेजा; पर प्रभाकर जी का मन इसमें नहीं लगा। अतः उन्होंने इसे छोड़ दिया। 1921-22 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इण्टर की पढ़ाई करते समय ‘असहयोग आन्दोलन’ का बिगुल बज गया। ये पढ़ाई छोड़कर आन्दोलन में कूद गये।

प्रभाकर जी को निज भाषा, भूषा और देश से अत्यधिक प्रेम था। हिन्दी के प्रति मन में अतिशय अनुराग होने के कारण वे साहित्यकारों से मिलते रहते थे। आगे चलकर उन्होंने हिन्दी की सेवा के लिए ‘साहित्य सेवा सदन’ नामक संस्था बनाकर बहुत कम मूल्य पर श्रेष्ठ साहित्य प्रकाशित किया।

जब रेलवे की हिन्दी समय सारिणी की चर्चा हुई, तो बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने इस काम को हाथ में लेने से मना कर दिया। यह देखकर प्रभाकर जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इसकी प्रेरणा उन्हें महामना मदनमोहन मालवीय और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन से मिली। जब इस सारिणी का प्रकाशन होने लगा, तो लोगों ने उनकी प्रशंसा तो खूब की; पर आर्थिक सहयोग के लिए कोई आगे नहीं आया। परिणाम यह हुआ कि चार साल में प्रभाकर जी को 30 हजार रु. का घाटा हुआ। यह राशि आज के 30 लाख रु. के बराबर है।

पर संकल्प के धनी बाबू मुकुन्ददास प्रभाकर जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे यह घाटा उठाते रहे और हिन्दी समय सारिणी का प्रकाशन करते रहे। 1935 में उन्होंने पहली बार हिन्दी में अखिल भारतीय रेलवे समय सारिणी का प्रकाशन किया। जब माँग और काम बढ़ने लगा, तो उन्होंने अपना एक निजी मुद्रण केन्द्र (प्रेस) लगा लिया। अब उन्होंने अन्य साहित्यिक प्रकाशन बन्द कर दिये और एकमात्र रेल की समय सारिणी ही छापते रहे।

इस दौरान उन्हें अत्यन्त शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े; क्यांेकि समय सारिणी के कारण प्रेस सदा घाटे में ही चलती थी। अनेक वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकारों ने उन्हें प्रोत्साहित किया; पर प्रोत्साहन से पेट तो नहीं भरता। शासन ने भी उन्हें कोई सहयोग नहीं दिया। फिर भी वे सदा प्रसन्न रहते थे, चूँकि हिन्दी समय सारिणी के प्रकाशन से उन्हें आत्मसन्तुष्टि मिलती थी। वे इस काम को राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा मानते थे।

प्रभाकर जी को दक्षिण भारत में भी इस काम से पहचान मिली। 1930 में अनेक हिन्दी संस्थाओं ने उनका अभिनन्दन किया। वे भाषा-विज्ञानी भी थे। उन्होंने एक वर्ष तक मासिक ‘हिन्दी जगत्’ पत्रिका का भी प्रकाशन किया। वे हिन्दी को विश्व भाषा बनाना चाहते थे; पर आर्थिक समस्या ने उनकी कमर तोड़ दी। निरन्तर 50 साल तक घाटा सहने के बाद 4 नवम्बर, 1976 को हिन्दी में रेलवे समय सारिणी के जनक बाबू मुकुन्ददास गुप्ता ‘प्रभाकर’ की जीवन रूपी रेल का पहिया सदा के लिए रुक गया।