क्या आप जानते हैं कि कैसी होती है पत्रकारों की जिंदगी


हम पत्रकारों के जीवन में इस दौर में बहुत सारी समानताएं  देखने को मिलती है ,पहले मैं मजदूर भाइयों के लिए यह बोलना चाहता हूं  । मेहनत ही अपनी रीत ,मैं ना देखूं गर्मी या शीत । गर्मी हो ,बारिश  का मौसम, या शीत ,मजदूर को मजदूरी के लिए अपने ठिकाने से निकलकर काम ढूंढने जाना पड़ता है ,अगर वह अपने ठिकाने से नहीं निकलेगा तो शाम को अपने परिवार के लिए खाने की व्यवस्था कैसे करेगा । अब मैं पत्रकारों के लिए कुछ लाइने लिखना चाहता हूं *आराम से कोसों दूर हूं मैं , मेहनत में भरपूर हूं मैं ,जान जोखिम में डालता हूं कोई और नहीं पत्रकार हूं मैं । मजदूरों की तरह हम पत्रकार भी 45 डिग्री गर्मी  हो या 5 डिग्री सर्दी बारिश हो या बाढ़ सुबह के 5:00 बजे हो या रात के 3:00 इन सब परिस्थितियों में पत्रकार को फील्ड में रहना जरूरी होता है, अगर वह कवरेज पर नहीं जाता तो उसको अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है ।इतनी मेहनत करने के बाद उसको जो पगार मिलती है ,वह भी एक मजदूर से कम इस दौर में समाचार पत्रों में जो एक पत्रकार को वेतन मिलता है ,5000 से लेकर ₹12000 महीने तक , अगर हम एक मजदूर की  दिहाड़ी महीने भर की जोड़ें तो महीने भर की तकरीबन ₹15000 होती है ,और अगर  शाम 5:00 बजे के बाद रुकता है तो उसको दुगना पैसा  घंटे के हिसाब से मिलता है ,जिसे हम अंग्रेजी में ओवरटाइम कहते हैं  पत्रकारिता में  ओवरटाइम जैसे शब्द नहीं होता है ।फ्रीलान्सर यानी किसी मीडिया संस्था से जुड़े बगैर काम करते हैं. इनको तनख़्वाह नहीं मिलती
हमारे साथी पत्रकार जो फ्रीलांसर है ,उनकी स्थिति तो और भी दयनीय है ,अख़बार की एक स्टोरी के केवल 150 रुपए मिलते हैं ,जबकि एक टीवी स्टोरी के 700 से 800 रुपए मिलते हैं.यानी अगर अख़बार के एक पत्रकार की किसी एक महीने में 10 कहानियां प्रकाशित हुईं तो उस महीने में उसकी कमाई केवल 1500 रुपए हुई , दूसरे शब्दों में उसकी एक मज़दूर से भी कम कमाई है ।
 जैसे मजदूर दिन रात मेहनत करके  बंगला  बनाने के लिए मजदूरी करता है जब तक बंगला पूरा नहीं होता तब तक बगैर रोक-टोक बंगले में जाता है और मजदूरी करता है जिस दिन बंगला पूरा हो जाता है उस मजदूर को बंगले में जाने की इजाजत नहीं होती वैसे ही हम पत्रकारों को कवरेज के लिए मंत्रालय या मुख्यमंत्री निवास पर बुलाया जाता है ,तो हम लोगों की उस दिन बड़ी आवभगत होती है मुख्यमंत्री भी बड़े मुस्कुरा मुस्कुरा कर जवाब देते हैं ,और उम्मीद रखते हैं पत्रकार उनके पक्ष में बोली हुई बातें लिखें प्रेस वार्ता के बाद अगर किसी पत्रकार को मुख्यमंत्री निवास में मुख्यमंत्री से मिलने के लिए जाना हो तो उसको बाहर ही रोक लिया जाता है ,तो भाइयों आप ही बताएं मजदूर और पत्रकार में क्या अंतर रह गया है ।
 अब हम बात करें छोटे एवं साप्ताहिक अखबारों की उनकी स्थिति तो और दयनीय है ,किसी तरीके से अपने समाचार पत्रों को छापते हैं और अगर किसी पत्रकार वार्ता में जाते हैं तो उनके साथ सौतेला व्यवहार होता है ,हद यह हो गई उनको फर्जी पत्रकार के नाम से पुकारा जाता है, यह वही पत्रकार है जो मेहनत करके अपने बलबूते पर खबरों की खोज करते हैं ,जब उनकी खबर वायरल होने लगती है तो इसका फायदा बड़े समाचार पत्र उठा लेते हैं । मैं आपको बताऊं भोपाल गैस त्रासदी से पहले की खबर एक छोटे से साप्ताहिक अखबार ने छापी थी उसने यूनियन कार्बाईड  मे मिथाइल आइसो साइनाइड के उत्पादन को लेकर खबर लगाई जब गैस त्रासदी हुई उसके बाद  वही खबर बड़े बड़े समाचार पत्रों में छपी और उस साप्ताहिक अखबार के पत्रकार का नाम गायब था ।
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग जो सभी समाचार पत्रों को विज्ञापन देता है उस विभाग ने भी छोटे एवं साप्ताहिक अखबारों   को  विज्ञापन देना तकरीबन तकरीबन बंद ही कर दिया है और भुगतान के नाम पर ठेंगा ।


 हम पत्रकारों के कलम में बहुत    दम है ।
 हम पत्रकार सिस्टम सुधारने  का दम रखते हैं ।
 भले पैसे कम हो हमारे पास पर हौसला बुलंद रखते हैं । गर्व से कहो हां मैं पत्रकार हूं