रामचरितमानस का वह दोहा जिसमें भरत कर रहे हैं विनय के सी शर्मा की कलम से




*भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचार बहोरि।*
*करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।*

इस दोहे का भावार्थ यह हुआ--- भरतजी की विनय सर्वमतों के अनुकूल है।
रामजी उसे आदर पूर्वक सुनिए एवम तदनुसार कीजिए,  विचार पीछे कीजिएगा ।
 यदि आप विचार करेंगे तो भरत जी ऐसे गंभीर हैं कि इनकी विनय में आपको साधुमत, लोकमत, नृपनय,  निगम -- निचोड आदि सब कुछ मिलेगा।
अब गुरुदेव श्री वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर भरत जी ने यह विनय की  है---!

सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहिं सनाथ। (1) साधुमत
पहली विनय भरत जी की यह हुई कि आप मुझको अनुज सहित बन में भेज कर सबको सनाथ कीजिए,  अर्थात राज गद्दी पर आसीन होइये।  यह साधु मत है
नतरु फेरिअहि बंधु दोउ नाथ चलौ मैं साथ।।(2) लोकमत
दूसरी विनय भरत जी यह करते हैं--!
  अर्थात "दोनों" छोटे भाइयों को घर भेज दिया जाए; मैं इन दोनों से बड़ा हूं,  मुझको ही साथ ले चला जाए।  यही लोकमत है,  क्योंकि लोक- प्रथा के अनुसार सयाने लोग ही परदेश जाते हैं,  लड़के घर में ही रहते हैं ।

 गीतावली में भी इसका स्पष्ट प्रमाण मिलता है--  "फेरिअहि नाथ लखन लरिका है"।
नतरु जाहि बन तीनिउ भाई।
बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।(3) राजनीति
तीसरी विनय राजनीति पूर्ण है---!
  अर्थात भरत जी कहते हैं कि हम तीनो भाई हाथ, पैर और नेत्र की भांति सेवक है;  श्री सरकार मुख के समान स्वामी है। इसलिए नीति के अनुसार युगल सरकार सिंहासन आसीन होकर आज्ञा देते रहें और हम तीनो भाई सेवकाई में वन जा कर आपकी आज्ञा के पालन द्वारा कृतार्थ होवे।
 हाथ से कमाकर, पैर से चलकर,  आंखों से देखकर,  जो कुछ प्राप्त किया जाता है,  वह मुख में ही डाला जाता है। यही राजनीति है।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई।
करुणा सागर कीजिअ सोई।।(4) निगम निचोड
भरत जी की चौथी विनय यह है कि जिससे करुणा सिंधु श्री प्रभु की प्रसन्नता हो,  वही करें। निगम - निचोड़ है।  क्योंकि वेद- मर्यादा यही है कि भगवान की जो इच्छा हो,  वही जीव का कर्तव्य है ।
भगवत आज्ञा के पालन में ही जीव का सब प्रकार से कल्याण है ।
 "ईस  रजाइ  सीस सब ही के " यही वैदिक मार्ग भी है।
इस प्रकार से श्री भरत जी की विनय में साधुमत,  लोकमत, नृपनय, निगम- निचोड़---  इन चारों का समावेश कहा गया है। अस्तु।
 दुख में सुख में मेरे प्रियतम तेरी इच्छा पूर्ण हो।