जानिए क्यों होता है धार्मिक कार्यों में कुश का उपयोग -के सी शर्मा



हिंदू धर्म में किए जाने वाले धार्मिक कर्म-कांडों में विशेष अवसरों पर कुश ( एक विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा कोई भी जप कुश के आसन पर बैठकर करने का ही विधान है। धार्मिक कर्म-कांड़ों में घास का उपयोग आखिर क्यों किया जाता है? इसके पीछे का कारण सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी है।

वैज्ञानिक शोधों से यह पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। जब कोई साधक कुश का आसन पर बैठकर जप करता है तो उस साधना से मिलने वाली ऊर्जा पृथ्वी में नहीं जा पाती क्योंकि कुश का आसन उसे पृथ्वी में जाने से रोक लेता है। यानि इस समय कुश अपने नैसर्गिक गुणों के कारण ऊर्जा के कुचालक की तरह व्यवहार करता है। यही सिद्धांत पूजा-पाठ व धार्मिक कर्म-कांड़ों में भी लागू होता है।
कुश के इसी गुण के कारण सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। |

पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है। इसकी पावनता के विषय में कथा पुराणों में एक कहानी है।

महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए। कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा। विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे। गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया। यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए। उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा। कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गईं और वे छटपटाने लगे। इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है, किंतु ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।

कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पैंती पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।